माता रमाबाई व बाबा साहब का विवाह(04 अप्रैल, 1906)

महान पुरुषों के पीछे उनकी जीवन-संगिनी का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। जीवन साथी का त्याग और सहयोग अगर न हो, तो व्यक्ति का महापुरुष बनना इतना आसान नहीं रह जाता है। माता रमाबाई अम्बेडकर जी इसी त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थीं, जिनके कारण ही बाबा साहब देश के वंचित तबके का उद्धार कर सके। रमाबाई के बचपन का नाम रामी था। बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उनके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई आ गए, जहां वह लोग भायखला की चाल में रहते थे। आज ही के दिन 04 अप्रैल, 1906 को माता रमाबाई जी का विवाह बाबा साहब डा०भीमराव आम्बेडकर जी से हुआ था। डॉ. आम्बेडकर रमाबाई को प्यार से ‘रामू ‘ कह कर पुकारा करते थे, जबकि रमा ताई बाबा साहब को ‘साहब ‘ कहतीं थी। बाबा साहब जब अमेरिका में थे, उस समय माता रमाबाई जी ने बहुत कठिन दिन व्यतीत किये, बाबा साहब जब विदेश में थे, तब भारत में माता रमाबाई को काफी आर्थिक दिक्कतों को भी झेलना पड़ा, लेकिन उन्होंने बाबा साहब को कभी इसकी भनक नहीं लगने दी।
एक समय जब बाबा साहब पढ़ाई के लिए इंग्लैंड में थे, तो धनाभाव के कारण रमाबाई जी को उपले(कंडे) बेचकर, लोगों के ताने- सुनकर गुजारा करना पड़ा था, लेकिन उन्होंने कभी भी इसकी फिक्र और शिकायत नहीं की और सीमित खर्च में भी घर चलाती रहीं। दोनों की गृहस्थी शुरू होने पर सन् 1924 तक दोनों की पांच संतानें हुईं। किसी भी मां के लिए अपने पुत्रों की मृत्यु देखना सबसे ज्यादा दुख की घड़ी होती है। माता रमाबाई को यह दुख सहना पड़ा। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर और रमा ताई ने अपने पांच बच्चों में से चार को अपनी आंखों के सामने धन और समयाभाव में मरते हुए देखा। जब बालक गंगाधर की मृत्यु हुई तो, उनकी मृत देह को ढ़कने के लिए गली के लोगों ने नया कपड़ा लाने को कहा। मगर, उनके पास उतने पैसे नहीं थे। तब रमा ताई ने अपनी साड़ी से कपड़ा फाड़ कर दिया था और उसी कपङे से मृत देह को ओढ़ा कर लोग श्मशान घाट ले गए और पार्थिव शरीर को दफना आए थे। माता रमाबाई इस बात का सदैव ध्यान रखती थीं कि “साहब” के काम में कोई बाधा न हो। रमाताई संतोष, सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थी। डॉ. अम्बेडकर प्राय: घर से बाहर रहते थे। वह जो कुछ कमाते थे, उसे वे रमा को सौंप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे। रमाताई घर का खर्च चला कर कुछ पैसा जमा भी करती थीं। बाबा साहब की पक्की नौकरी न होने से उन्हें काफी दिक्कतें होती थीं। आमतौर पर एक स्त्री अपने पति से जितना वक्त और प्यार चाहती है, रमाबाई को वह डॉ. अम्बेडकर से कभी नहीं मिल सका, लेकिन उन्होंने बाबा साहब का पुस्तकों से प्रेम और समाज के उद्धार की दृढ़ता का हमेशा सम्मान किया। वह हमेशा यह ध्यान रखा करती थीं कि उनकी वजह से डॉ. अम्बेडकर को कोई अङचन न हो। डॉ. अम्बेडकर के सामाजिक आंदोलनों में भी रमाताई की सहभागिता बनी रहती थी। दलित समाज के लोग रमाताई को ‘आईसाहेब’ और डॉ. अम्बेडकर को ‘बाबासाहेब’ कह कर पुकारते थे। रमाताई के मृत्यु से डॉ. अम्बेडकर को गहरा आघात लगा था। उस समय वह बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोये थे। बाबा साहब का अपनी पत्नी के साथ अगाध प्रेम था। बाबा साहब को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाबाई का ही साथ था।
दिसंबर 1940 में बाबा साहब अम्बेडकर ने “थॉट्स ऑफ पाकिस्तान” नाम की पुस्तक को अपनी पत्नी रमाबाई को ही भेंट(समर्पित) किया। भेंट के शब्द इस प्रकार थे.. “रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई सहायक न था, अतीव सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं…”
डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखे गए इन शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाबाई ने बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर का किस प्रकार संकटों के दिनों में साथ दिया और बाबा साहब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार और प्रेम था।
जहां बाबा साहब ज्ञान के अथाह सागर थे वहीं उनकी जीवनसंगिनी माता रमाबाई त्याग, संतोष, सहयोग और सहनशीलता, संघर्ष की प्रतिमूर्ति थीं। डाॅ.आंबेडकर को बाबा साहब व विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में माता रमाबाई जी आजीवन समर्पित रहीं।
आज 04 अप्रैल(1906) को बाबा साहब डॉ.भीमराव आंबेडकर जी और बहुजन समाज की त्यागमूर्ति-माता रमाबाई जी की 118वीं वैवाहिक वर्षगांठ है। यह दोनों महापुरुष “हम भारत के लोगों” के लिए आदर्श प्रेरक युगल हैं, हम कितने गौरवशाली और उपकृत भारत के लोग हैं, जो इन युगल महापुरुषों के अ-कथ त्याग और संघर्ष से आज के इन सुनहरे दिनों को जी पा रहे हैं। इस सुअवसर पर, इन महान युगल महापुरुषों को उनकी वैवाहिक सालगिरह पर बधाई व कृतज्ञतापूर्ण नमन💐🙏

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