बुद्ध-धम्म-संघ वंदना एवं प्रमुख बौद्ध संस्कार
बुद्ध वन्दना
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा सम्बुद्धस्स ।
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा सम्बुद्धस्स ।
नमों तस्स भगवतो अरहतो सम्मा सम्बुद्धस्स ।
त्रिशरण
बुद्धं सरणं गच्छामि ।
धम्म सरणं गच्छामि ।
संघ सरणं गच्छामि ।
दुतियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि ।
दुतियम्पि धम्म सरणं गच्छामि ।
दुतियम्पी संघ सरणं गच्छामि ।
ततियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि ।
ततियम्पि धम्म सरणं गच्छामि ।
ततियम्पी संघ सरणं गच्छामि ।
पंचशील
पाणतिपाता वेरमणी सिक्खापदं समादियामि ।
अदिन्नादाना वेरमणी सिक्खापदं समादियामि ।
कामेसु मिच्छाचारा वेरमणी सिक्खापदं समादियामि ।
मुसावादा वेरमणी सिक्खापदं समादियामि ।
सुरा-मेरय-मज्ज-पमादट्ठानावेरमणी सिक्खापदं समादियामि ।
बुद्ध पूजा
अधिवासेतु नो भन्ते, ब्यञ्जनं उपनामितं ।
अनुकम्पं उपादाय, पटिगण्हातु उत्तमं ।
वण्ण-गन्ध-गुणोपेतं एतंकुसुमसन्तति ।
पुजयामि मुनिन्दस्य, सिरीपाद सरोरुहे ।१।
पुजेमि बुद्धं कुसुमेन नेनं, पुज्जेन मेत्तेन
लभामि मोक्खं ।
पुप्फं मिलायति यथा इदंमे,
कायो तथा याति विनासभावं।२।
घनसारप्पदित्तेन, दिपेन तमधंसिना ।
तिलोकदीपं सम्बुद्धं पुजयामि तमोनुदं ।३।
सुगन्धिकाय वंदनं, अनन्त गुण गन्धिना।
सुगंधिना, हं गन्धेन, पुजयामि तथागतं ।४।
बुद्धं धम्मं च सघं, सुगततनुभवा धातवो धतुगब्भे।
लंकायं जम्बुदीपे तिदसपुरवरे, नागलोके च थुपे।
५।
सब्बे बुद्धस्स बिम्बे,सकलदसदिसे
केसलोमादिधातुं वन्दे।
सब्बेपि बुद्धं दसबलतनुजं बोधिचेत्तियं नमामि।
६।
वन्दामि चेतियं सब्बं सब्बट्ठानेसु पतिठ्ठितं।
सारीरिक-धातु महाबोधि, बुद्धरुपं सकलं सदा।७।
त्रिरत्न वंदना
इति पि सो भगवा अरहं, स्म्मासम्बुद्धो,
विज्जाचरणसम्पन्नो, सुगतो, लोकविदु,
अनुत्तरो,
पुरिसदम्मसारथि, सत्था देव अनुस्सानं,
बुद्धो भगवाति।
बुद्धं जीवितं परियन्तं सरणं गच्छामि ।
ये च बुद्धा अतीता च, ये च बुद्धा अनागता।
पच्चुपन्ना च ये बुद्धा, अहं वन्दामि सब्बदा।
नत्थि मे सरणं अञ्ञं, बुद्धो मे सरणं वरं।
एतेन सच्चवज्जेन होतु मे जयमंङ्गलं ।
उत्तमग्गेन बदे हं पादपंसु वरुत्तमं।
बुद्धे यो खलितो दोसो, बुद्धो खमतु तं ममं।
संघ वंदना
सुपटिपन्नो भगवतो सावकसंघो,
उजुपतिपन्नो भगवतो सावकसंघो,
ञायपटिपन्नो भगवतो सावकसंघो,
सामीचपटिपन्नो भगवतो सावकसंघो।
यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानी, अठ्ठपुरिसपुग्गला
एस भगवतो सावकसंघो, आहुनेय्यो, पाहुनेय्यो,
दक्खिनेय्यो, अञ्जलिकरणीयो, अनुत्तरं
पुञ्ञक्खेतं
लोकस्सा’ति॥
संघं जीवित परियन्तं सरणं गच्छामि।
ये च संघा अतीता च, ये संघा अनागता।
पच्चुपन्ना च ये संघा अहं वन्दामि सब्बदा।
नत्थि मे सरणं अञ्ञं, संघो मे सरणं वरं।
एतेन सच्चवज्जेन, होतु मे जयमङगलं॥
उत्तमङ्गेन, वन्देहं, संघ ञ्च तिविधुत्तमं।
संघे यो खलितो दोसो, संघो खमतु तं ममं॥
महामंगलसुत्त
बहु देवा मनुस्सा च मंङ्गलानि अच्चिन्तयुं।
आकंङ्खमाना सोत्थानं ब्रुहि मंङगलमुत्तमं॥१॥
असेवना च बालानं पण्डितानञ्च सेवना।
पुजा च पुजनीयानं एतं मंङ्गलमुत्तमं॥२॥
पतिरुपदेसवासो च पुब्बे च कतपुञ्ञता।
अत्तसम्मापणिधि च एतं मंङ्गलमुत्तमं॥३॥
बाहुसच्चं च सिप्पंञ्च विनयो च सुसिक्खितो।
सुभासिता च या वाचा एतं मंङ्गलमुत्तमं॥४॥
माता-पितु उपट्ठानं पुत्तदारस्स सङ्गहो।
अनाकुला च कम्मन्ता एतंमंङ्गलमुत्तमं॥५॥
दानंञ्च धम्मचरिया ञातकानं च सङ्गहो।
अनवज्जानि कम्मानि एतं मंङगलमुत्तमं॥६॥
संस्कार विधि
संस्कार विधि :– सुसज्जित पूजा स्थल, दीक्षार्थी द्वारा अगरबत्ती-मोमबत्ती प्रज्वलन, तथागत बुद्ध व बाबा साहेब की प्रतिमाओं पर पुष्प अर्पण, पंचांग प्रणाम, भिक्षु/श्रामणेर को पंचांग प्रणाम, याचना, त्रिशरण-पंचशील ग्रहण, बाईस प्रतिज्ञाएँ ग्रहण, दीक्षार्थीयों का अभिनंदन, प्रमाण-पत्र वितरण, संक्षिप्त धम्म प्रवचन, धम्मपालन गाथा एवं समाप्त।
गृह प्रवेश संस्कार :- यह संस्कार नया घर बनाने अथवा पुराना मकान छोड़कर अन्यत्र दूसरे मकान में निवास के लिए जाने पर सम्पन्न किया जा सकता है। यह संस्कार किसी भी विद्धान भिक्षु-श्रामणेर की उपस्थिती में (अनिवार्य नहीं है।) संस्कारकर्ता अथवा शीलवान उपासक द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है। इस अवसर पर भी पारिवारिक धम्म संगोष्टि के आयोजन के साथ बाईस प्रतिज्ञाओं के पालन का संकल्प अवश्य लेना चाहिए।
संस्कार विधि:- पूजा स्थल सजाना, गृहस्वामी द्वारा अगरबत्ती-मोमबत्ती प्रज्वलित कर पंचांग प्रणाम, संस्कारकर्ता द्वारा त्रिशरण-पंचशील ग्रहण करवाना, बुद्ध पूजा, त्रिरत्न वंदना, संकल्प, महामंगल सुत्त गाथाओं का पठन, ‘बुद्ध और उनका धम्म’ पंचाग काण्ड़ का पाँचवा भाग-ग्रहस्थों के जीवन नियम विषय का पाठ, बाईस प्रतिज्ञाओं का संकल्प, संस्कारकर्ता द्वारा संक्षिप्त धम्म प्रवचन, ग्रहस्वामी द्वारा आवश्यक दान दिया जाना, समापन गाथा और समाप्त।
बालक अथवा बालिका को पाठशाला भेजने के पूर्व पहले ही दिन यह संस्कार नजदीकी बुद्ध विहार अथवा अपने घर में विद्धान बौद्ध भिक्षु/भिक्षुणी/श्रामणेर/श्रामणेरी की उपस्थिती में (अनिवार्य नहीं) मान्य संस्कारकर्ता अथवा शीलवान उपासक/उपासिका द्वारा सम्पन्न करवाया जाना चाहिए।
संस्कार विधि :-
पूजा स्थल सजाना, माता-पिता द्वारा अगरबत्ती, मोमबत्ती प्रज्वलित कर बच्चे के हाथों तथागत बुद्ध और बाबासाहेब की प्रतिमाओं पर पुष्प अर्पन कर पंचांग प्रणाम करवाना, त्रिशरण, पंचशील, त्रिरत्न वंदना, संकल्प का पाठ करवाना बच्चे का हाथ पकड़कर स्लेट या काॅपी पर ‘‘नमो बुद्धाय’’ अथवा ‘‘जय भीम’’ लिखवाना, महामंगल सुत्त का पाली-हिंदी पाठ, ‘बुद्ध और उनका धम्म’ ग्रंथ का पाठ, धम्म प्रवचन, बच्चे के हाथों उचित दान दिलवाना, समापन गाथा और समाप्ति।
भगवान’ पाली भाषा का शब्द न होकर ‘भगवा’ शुद्ध पाली है। पाली साहित्य मे तथागत को भगवान नहीं अपितु भगवा, भगवातो या भगवतं आदि शब्दों से संबोधित किया गया हैं। ‘भगवान’ इन्हीं शब्दों का अपभ्रंश हैं। जब तथागत बुद्ध का यह ‘भगवान’ सम्बोधन/संसार में छा गया।
‘भगवान’ दो शब्दो से मिलकर बना है – भग और वान। भग का मतलब है भग्न करना, नष्ट करना, भष्म करना और वान का अर्थ हैं तृष्णा, आसव, बंधन। अर्थात जिसने अपनी तृष्णाऐं समाप्त कर दी हो, वह भगवान। भग्गति दोसो, भग्गति रागो, भग्गती मोहो – जिन्होंने राग, द्वेष और मोह को भष्म कर दिया, समस्त तृष्णाओं को भग्न कर दिया, जो तृष्णाओं के बंधन से विमक्त हो गया, वही भगवान की उपाधी का पात्र हैं। इसी भावना से तथागत को भगवान कहा जाता हैं। उसी प्रकार ‘तथ्य’ और ‘आगत’ से मिलकर तथागत बना है। अर्थात जो सत्य के सहारे चलकर परम सत्य, निर्वाण तक पहुँचा हैं। ‘अरि’ और ‘हत’ से मिलकर अर्हत बना है। अरि का मतलब शत्रु व हंता यानि नष्ट करने वाला होता है। किसी भी व्यक्ति से राग, मोह और द्वेष ही उसके बड़े शत्रु होते है। ‘‘तक्ष’’ का अर्थ है, किसी कार्य को करने के लिये तटस्थ रहना अर्थात एक लक्ष्य पर रहना। ‘‘प्रज्ञा’’ का अर्थ है, प्रकाशवान सूर्य की तरह तेजवान, ऊर्जावान, वैज्ञानिक रूप से ज्ञानवान, अंधविश्वास अंधश्रद्धा से मुक्तवान। ’’शील’’ का अर्थ है, गुणो से सम्पन्नवान जिसमें दया, करूणा, प्रेम, मैत्री, न्याय की भावना हो।
बुद्ध कालीन परम्परा रही हैं कि कोई व्यक्ति अच्छा काम करता हैं या अच्छी बात करता है तो उसके अनुमोदन हेतु तीन बार साधू…….साधू………साधू कहा जाता है। इसका अर्थ होता हैं बहुत अच्छा……. बहुत अच्छा……बहुत अच्छा।
तथागत बुद्ध ने अंधविश्वास और अंध रूढ़ि-मान्यताओं पर प्रहार करके अपने भिक्खु संघ को और उपासक – उपासिकाओं को अंधश्रद्धा मुक्त काया, वाचा, मन से बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का उपोसथ मार्ग बतलाया। इस ‘उपोसथ’ को हम जितनी ईमानदारी और निष्ठा से निभायेंगे उतनी ही हमें व्यक्तिगत स्तर और सामाजिक स्तर पर शारीरिक और मानसिक सुख-शांति का लाभ प्राप्त हो सकता है। इसलिए बौद्धों में उपोसथ किया जाता हैं। उपोसथ, उपवास से भिन्न प्रक्रिया हैं। तथागत बुद्ध ने उपासक/उपासिकाओं के लिए उपोसथ हेतु माह के चार दिन महत्वपूर्ण बताये हैं। वह हैं- अमावस्या, पूर्णिमा और दोनों अष्टमी। इन दिनों अधिकतर साधारण व्यक्तियों का मन अकुशल चित्त प्रवृतियों की ओर झुकता हैं। अर्थात् यह सब प्रकृतिजन्य है। इन दिनों अपने मन को और मानसिक भावनाओं को नियंत्रित रखना आवश्यक होता हैं और यह कार्य ‘उपोसथ’ पक्रिया से आसान होता जाता हैं, इसलिए तथागत बुद्ध ने उपरोक्त चार दिनों पर ‘उपोसथ’ करने की शिक्षा दी हैं।
सर्व प्रथम सवेरे जल्दी उठकर नित्यकर्म, घर की साफ-सफाई, स्नान आदि के पश्चात शुभ्र वस्त्र परिधान पहनकर तथागत बुद्ध और बाबा साहेब की प्रतिमाओं के समक्ष अगरबत्ती-मोमबत्ती प्रज्वलित कर पुष्प अर्पण कर अपने घर का वातावरण, मंगलमयी किया जाता है। इस प्रकार हमें एकल रूप से अपने घर में अथवा सामहिक रूप से समीप के बुद्ध विहार में उपासक-उपासिकाएँ एकत्रित होकर तथागत एवं बाबा साहेब की प्रतिमाओं के समक्ष अगरबत्ती-मोमबत्ती प्रज्वलित व पुष्प् अर्पित कर पंचाग प्रणाम करके शांत चित्त से बैठकर भन्ते जी उपलब्ध हो तो भन्ते जी से और न हो तो किसी भी शीलवान उपासक से अथवा किसी भी उपासक से सामूहिक रूप से स्वयं ही धम्म साहित्य से पढ़कर अष्टशील ग्रहण करना चाहिए।
प्रव्रज्या संस्कार-प्रव्रज्या संस्कार बचपन में ही सम्पन्न किया जाना चाहिए। सामान्यतः यह संस्कार किसी स्थविर/महास्थविर भिक्खु द्वारा कराया जाता है। प्रव्रज्या सात दिन से लेकर जीवन पर्यंत हो सकती है। बालक भिक्खु के सान्निध्य में रहकर धम्म को गहराई से समझने का प्रयास करता है।
तथागत सम्यक सम्बुद्ध ने देश की सुरक्षा के लिए वज्जियों के आपस में मिलजुल कर रहने, उठने-बैठने, धम्म चर्चा करने व संघठित रहने की प्रशंसा करते हुए उन्हें आगे भी वैसे ही रहने का उपदेश दिया था। वहीं संदेश हमें अपने (बौद्धों के) अस्तित्व को बनाये रखने के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण हैं। पारिवारिक धम्म संगोष्ठि जैसे आयोजन तथागत बुद्ध व बोधिवसत्व बाबासाहेब के संदेशों का अक्षरशः करने-करवाने के उचित माध्यम है। इस संगोष्ठियों का आयोजन रविवार या किसी भी सार्वजनिक अवकाश के दिन किया जाना उचित होता है।
प्रत्येक उपासक उपासिका को त्रिशरण, पंचशील, का पूर्ण रूपेण पालन करते हुए आर्य अष्टांगिक मार्ग पर आधारित जीवन जीना चाहिए। द्वेष, ईष्या, लोभ, मोह तथा भोगवादी प्रवृत्ति को त्याग कर चरित्र संपन्न व्यक्ति बनने का प्रयास करना चाहिए।
प्रतिदिन त्रिशरण, पंचशील के साथ-साथ सुविधानुसार थोड़े समय के लिए आनापान मेत्ता ध्यान भावना करनी चाहिए।
प्रत्येक रविवार और अवकाश के दिन एवं त्यौंहारों के अवसरों पर सम्पूर्ण परिवार सहित अनिवार्य रूप से बुद्ध विहार में जाकर विधिवत् पूजा, वंदना, ध्यान साधना, धम्म देशना आदि का लाभ लेना चाहिए।
त्रिगुण पावन पूर्णिमा, विजय दिवस, मुक्ति दिवस, आषाढ़ पूर्णिमा, महाप्रवारणा इन त्यौहारों के अवसरों पर धूमधाम से घरों, विहारों में साफ-सफाई, रंगाई-पुताई, रोशनाई आदि करनी चाहिए। नये कपड़े पहनें, मिठाईयाँ बाँटे, भिक्खुओं को श्रद्धा भाव से दान दें, गरीबों को करूणा और मैत्री भाव से वस्त्र भोजन आदि का दान देना चाहिए। बहू-बेटियों का लाना-ले जाना बौद्ध त्यौहारों पर करना चाहिए। आपस में मिलने पर शिष्टाचार के रूप में ‘जय भीम’ या ‘नमो बुद्धाय’ करना चाहिए। श्रामणेर अथवा भिक्खु से मिलने पर ‘वन्दामि भन्ते जी’, ‘नमो बुद्धाय भन्ते’ अथवा ‘जय भीम भन्ते जी कहना चाहिए। गब्भ मंगल संस्कार, नामकरण संस्कार, विज्ञारम्भ संस्कार, परिणय संस्कार, गृह प्रवेश संस्कार, मृतक व पुण्यानुमोदन संस्कार आदि सभी संस्कार तर्क संगत, विज्ञान संगत तरीकों से एवं बौद्ध पद्धति से सम्पन्न करवाने चाहिए। इन संस्कारों में किसी प्रकार के अंधविश्वास का समावेश नहीं होना चाहिए। उपोसथ व्रत पूर्णिमा, अमावस्या एवं अष्टमी को करनी चाहिए। उपोसथ के दौरान हम शरीर, वाणी और मन से आठों शीलों का ईमानदारी के साथ पालन कर रहे हैं, अथवा नहीं, इसका क्षण-क्षण ध्यान रखा जाना चाहिए। त्यौहारों पर किसी विहार के उद्घाटन या समर्पण समारोह में अथवा तथागत व बाबा साहेब की प्रतिमाओं के अनावरण समारोह के अवसर पर अनिवार्य रूप से शुभ्र वस्त्र पहनकर ही कार्यक्रम में जाना चाहिए।
वृक्षारोपण की शुरूआत सम्राट अशोक द्धारा की गई थी। बौद्धों के प्रत्येक सदस्यों को प्रतिवर्ष दस पेड़ अवश्य लगाने चाहिए। कम से कम जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसर पर वृक्षारोपण अवश्य करना चाहिए। साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखें, हर हाल में अपने व आसपास का वातावरण स्वच्छ रखें, बुद्ध विहार व बाबा साहेब की सार्वजनिक प्रतिमा के आसपास भी स्वच्छता रखनी चाहिए। प्रत्येक बौद्ध के घर में भारत का संविधान, ‘भगवान बुद्ध और उनका धम्म’, तथागत व बाबासाहेब की मूर्ति अथवा छायाचित्र एवं बौद्ध कैलेण्ड़र अवश्य होना चाहिए। अपनी सामर्थ्यनुसार बौद्ध धम्म एवं बाबासाहेब के मिशन संबंधी पत्र-पत्रिकाएँ एवं साहित्य बौद्धों के घरों में आना चाहिए एवं अन्य को भी अपना साहित्य खरीदवाने अथवा पढ़ने हेतु प्रेरित करना चाहिए। बौद्धों को अपने घरों में पारिवारिक धम्म संगोष्टियों तथा भिक्खुओं/विद्वजनों की धम्म देशना के कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए। बौद्ध व्यापारी बंधुओं को अपने प्रतिष्ठानों पर तथागत व बाबासाहेब की मूर्ति अथवा छायात्रिच रखना चाहिए। बौद्ध उपासकों को अपने सामर्थ्य के अनुसार बौद्ध दर्शनीय स्थलों/पर्यटन स्थलों की यात्रा यथा संभव अवश्य करनी चाहिए। जन्म से कोई बौद्ध नहीं होता, इसलिए बौद्ध परिवारों में ‘धम्म दीक्षा’ संस्कार का आयोजन कर 18 वर्ष की प्रत्येक बालक/बालिका को किसी भिक्खु अथवा शीलवान उपासक/उपासिका द्वारा ‘बौद्ध धम्म दीक्षा’ बुद्ध विहार में ही दिलवानी चाहिए। बौद्ध उपासक/उपासिका की मृत्यु के समय अंतिम क्षणों में ‘धम्म ग्रंथ’ से अनित्य बोध का पाठ अवश्य करना चाहिए। मृत्यु पर शांति बनाये रखकर शोक व्यक्त करना चाहिए। बौद्धों में दान का बहुत महत्व हैं, अतः उचित समय पर भिक्खुओं, बुद्ध विहारों, बौद्ध संस्थाओं अथवा दान देने योग्य उचित व्यक्तियों को यथा शक्ति, यथा योग्य दान देना चाहिए। साथ ही बाबासाहेब के मिशन व हमारे धार्मिक, सामाजिक शैक्षणिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सर्वांगीण विकास के लिए कार्यरत उचित संघठनों को भी समय-समय पर अपनी क्षमतानुसार आर्थिक सहयोग अवश्य करना चाहिए। 06 दिसम्बर, बाबासाहेब का परिनिर्वाण दिवस हमारा संकल्प दिवस कहलाता हैं। उस दिन बाबासाहेब के मिशन का कार्य करने का संकल्प लेकर रक्त दान शिविर, निःशुल्क रोग निदान व चिकित्सा शिविर तथा गरीब व पीड़ित धम्म बंधुओं के सर्वांगिण विकास हेतु चेतना शिविर लगाने चाहिए। पंचशीलों को व्यवहार में उतारना आवश्यक है। पूजा-वंदना के समय उपासक/उपासिकाओं के सिर पर टोपी, पगड़ी, मुकुट या साडी का पल्लू आदि नहीं होना चाहिए। यह सम्मानीय व्यक्ति के प्रति सम्मान प्रकट करने की पुरातन परम्परा हैं। बौद्ध भिक्खु भी वरिष्ठ भिक्खुगणों या बुद्ध के प्रति सम्मान प्रकट करने हेतु अपने दाएँ कंधें को खुला कर देते हैं। अर्थात चीवर हटा देते हैं।
बुद्ध विहारों में नियमित रूप से पूजा-वंदना तो होनी ही चाहिए, परंतु समय-समय पर विद्वान भिक्खुओं/समाज चिंतको की सीख/व्याख्यान आदि भी आवश्यक रूप से होते रहने चाहिए। वह भी ज्ञानवर्धक, धम्म के गूढ़-ज्ञान सहित समाज हितपयोगी होने साथ-साथ बौद्धों के त्यौहार एवं संस्कारों में प्रगाढ़ता लाने वाले महत्व बताने वाले वक्तव्य होने चाहिए। मनुष्य का दुःख कैसे दूर हो सकता है। वह निर्वाण को, बुद्धत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है, बुद्ध कैसे बन सकते हैं, इस प्रकार की उच्च विचारों की गंभीर चर्चा के साथ-साथ हमारा आपसी भाईचारा कैसे बढ़ सकता हैं, हम एक दूसरों के दुःख-सुख में कैसे सहभागी हो सकते हैं, हम अपनी मानसिक गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होकर अपने स्वतंत्र बौद्ध समाज का अस्तित्व कैसे बनाये रख सकते हैं, आदि विषयों पर भी चर्चा होनी चाहिए। बुद्ध विहारों में धर्मार्थ अस्पताल, स्कूल, वाचनालय, धम्मवर्ग बच्चों के संस्कार शिविर केन्द्र, महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने हेतु विविध प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि रचनात्मक क्रियाकलाप चलाये जाने चाहिए। विहारों में आगन्तुक भिक्खुओं व धम्म कार्य हेतु बाहर से आये बौद्ध उपासको को आवश्यक जाच पड़ताल के बाद अल्प निवास की सुविधायें देनी चाहिए। बौद्ध विहारों में स्वच्छता, शांतिपूर्ण वातावरण आदि का ध्यान रखना अनिवार्य है। बुद्ध विहारों को हमें मानवता के धार्मिक सामाजिक समानता के बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय को चरितार्थ करने वाले समाज सेवा के केन्द्र बनाने चाहिए। बौद्धों को दो वर्गो में बाँटा जा सकता हैं – भिक्खु और उपासक। धम्म में भिक्खु और उपासक दोनों का समान महत्व है। परंतु बुद्ध ने बौद्धों-उपासकों के समक्ष, भिक्खु के रूप में आदर्श बौद्ध अनुयायी का अनुकरनीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। एक भिक्खु परिवार को त्याग कर उपसम्पदा ग्रहण करता है। वह स्थविर, महास्थविर, अर्हत पद का अनुगामी होता है। धम्म के शील उसके अनिवार्य व्रत होते है। वह समाज का जागरूक मित्र, दार्शनिक एवं शिक्षक होेता है। समाज ही उसका स्वाभाविक अभिभावक होता है।
जबकि उपासक पारिवारिक जीवन जीते हैं। वह कुछ समय हेतु श्रामणेर या अनागारिक की शिक्षा ले सकतेे हैं। वह बोधाचार्य, बोधिसत्व आदि पद के लाभी हो सकते हैं। बौद्ध उपासक अपने आचरण से पहचाने जाते हैं। धम्म के शील उनके लिए अनुकरनीय होते हैं। शील भिक्षु के लिए वृत है, किंतु ग्रहस्थ के लिए स्वेछा से ग्रहण किये गये ‘शील’ है। बुद्ध धम्म व संघ के सिवाय बौद्धो की कोई अन्य शरण नही होती। वह धम्माचरण के साथ-साथ बौद्धों के त्यौहार व संस्कार कर, अंधविश्वास और ऊंच-नीच का समर्थन नहीं करते। अनुशासनहीन समाज को अनुशासित रखने व बौद्धों को समान त्यौहार-संस्कार एवं आचार व्यवहार अपनाने चाहिए, यही बौद्ध आचार संहिता है। आदर्श बौद्ध उपासक वह हैं, जो प्रतिदिन त्रिरत्न वंदना करे, बाबा साहब की प्रतिज्ञाओं का पालन करे, पंचशील, आर्य अष्टांगिक मार्ग, दस पारमिताओं का पालन करे, बौद्ध धम्म और आम्बेड़करी मिशन के कार्य में सक्रिय सहयोग कर यथा शक्ति दान दे, बौद्ध संस्कार एवं त्यौहारों को माने। प्रत्येक रविवार एवं बौद्ध त्यौहारों पर बुद्ध विहार जाये। धम्म में भिक्खु को दिये गये भोजनदान का विशेष महत्व है। भिक्खु का परिवार नहीं होता। उपासक ही भिक्खु के सामाजिक अभिवावक होते हैं। यदि उपासक भिक्खु को भोजनदान देते हैं, तो धम्म का जीवन एक दिन बढ़ जाता है। भिक्खु को दोपहर 12.00 बजे के पूर्व भोजनदान देना चाहिए। भिक्खु एकाहारी होते हैं वे दिन में सिर्फ एक ही समय भोजन करते हैं। धम्म में जागरूक उपासक का बहुत महत्व है। अपरिचित भिक्खु से भेंट होने पर उनसे सामान्य परिचय प्राप्त करना चाहिए। जैसे उनके संघ का नाम, पता, उनके पूर्व जीवन का नाम, पता, शिक्षा, व्यवसाय, पूर्व परिवार भिक्षु जीवन की उपसम्पदा का उद्देश्य उनके उपाध्याय का नाम, भिक्षु जीवन के अनुभव, उनके आगमन का उद्देश्य, आगे के प्रस्थान यात्रा का समय विवरण आदि के विषय में विस्तार से जानकारी लेकर सम्पूर्ण परिचय प्राप्त करना चाहिए।
भिक्खु सदैव काषाय वस्त्र (चीवर) धारण करते हैं। उनका सिर मुंड़ा हुआ रहता है। उनके पास अंतरवासक, उत्तरासंग, संघटी, कमर का पट्टा, भिक्षा पात्र, उस्तरा या ब्लेड, सुई धागा व पानी छानने का कपड़ा इन आठ आवश्यक वस्तुओं के अलावा धम्म व शील की अमुल्य निधि होती है। भिक्षा पात्र सदैव उनके पास रहता है। भिक्खु गंभीर व अधिकतर मौन रहते हैं। महिलाओं की उपस्थिति में वे भिक्षु प्रतिमोक्ष संवर शील का पालन करते हैं। ‘ओक्खितं चक्खु’ विशेष तौर पर संयमित होते हैं। सच्चे भिक्खु उनके आठ आवश्यक वस्तुओं के अलावा भोजन दान स्वीकार करते हैं। थेरवादी बौद्ध भिक्खु 227 व भिक्खुनियाँ 311 नियमों का अनिवार्य रूप से पालन करने वाले होते हैं। तथागत व बाबा साहेब की दो बड़ी प्रतिमाएँ/छायाचित्र, नया कासाय/सफेद वस्त्र (कम से कम तीन मीटर, संस्कार के बाद भंते/संस्कारकर्ता को दान दिया जा सकता है।) मोमबत्ती, अगरबत्ती, एक नया मिट्टी का लाल बर्तन (छोटी मटकी) एक प्लेट (कलस पर रखने हेतु) पीपल या जामुन के पांच पत्ते (बौद्ध देशों मेें बोधिवृक्ष के पत्ते नही तोड़े जाते) तीन सूत्रीय सफेद धागा, मोमबत्ती हेतु स्टैण्ड या प्लेट, अगरबत्ती स्टैण्ड, अधिक मात्रा में पुष्प/पत्तियाँ। साथ में बुद्ध और उनका धम्म ग्रंथ अवश्य रख पूजा स्थल साधारणतः ऊँचा बनाया जाना चाहिए। एक टेबिल पर नया कासाय/सफेद वस्त्र बिछाकर तथागत की मूर्ति/छायाचित्र ऊपर रखें। उसके नीचे बाबासाहेब की मूर्ति/छायाचित्र रखें या बायीं ओर बाबासाहेब एवं दाहिनी ओर तथागत की मूर्ति/छायाचित्र रखें। यह बात हमेशा ध्यान रखें कि बाबासाहेब एवं तथागत की मुर्ति/छायाचित्र से ऊँचाई पर किसी का भी आसन नही रहेगा। टेबिल के बीच में तथागत की मूर्ति/छायाचित्र के समक्ष नया मिट्टी का लाल बर्तन रखें, कलश के नीचे चावल न रखे जाय। कलश में शुद्ध जल एवं पीपल/जामुन के पत्तो को डंठलों में तीन तार के धागे (सुत्त) से बांधकर रखें, पत्तों के ऊपर प्लेट रखें, एवं प्लेट में मध्यम आकार की मोमबत्ती लगायें। चाहे तो मोमबत्ती बाजु में भी लगा सकते हैं। सुविधानुसार अगरबत्ती स्टैण्ड सजा दें। भंतेजी की कुर्सी पर कुषन रखें या भंतेजी स्वयं अपना चीवर/वस्त्र रखकर बैठे ताकि भिक्षु का आसन उंचा रहे।
तथागत बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके शरीर के विभिन्न धातुओं- अवशेषों पर चैत्य, स्तूप निर्माण कर उन्हें बुद्ध के रूप (प्रतीक) में पूजा की जाती रही है, लेकिन बौद्ध राजा कनिष्क के कालखण्ड़ ईसा की प्रथम शताब्दी से प्रतीकात्मक बुद्ध मूर्ति बनवाकर महायान पंथियों द्वारा मूर्तिपूजा प्रारम्भ की गई और उसी के अनुरूप पूजा विधि एवं वंदना सुत्तों की रचना की गई। वही परम्परा वर्तमान में शुरू है। मन में धम्म के सुसंस्कार प्रतिबिंबित करने के लिए इस पूजा संस्कार विधि का एक अलग महत्व है, इसलिए तथागत व बाबासाहेब के प्रति अपना आदर व कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए-उनका गौरव करने के लिए हम उनकी प्रतिकात्मक मूर्ति/प्रतिमा की नम्रता पूर्वक पूजा-वंदना करते है। यह पूजा वंदना किसी को संतुष्ट करने के लिए की जाने वाली प्रार्थना, याचना अथवा आराधना जैसी बिल्कुल नहीं होती है। दोनों घुटने, दोनों हाथ और माथा भूमि को स्पर्श कर पंचाग प्रणाम की जाने वाली पूजा-वंदना, तथागत व बोधिसत्व बाबासाहेब के प्रति काया द्वारा व्यक्त किया जाने वाला आदर है। सुत्तपाठ और गुणगौरव के साथ की जाने वाली पूजा-वंदना यह वाणी से व्यक्त किया जाने वाला आदर है। तथा समाधि-चिंतन द्वारा की जाने वाली पूजा-वंदना यह मन/चित्त से किया जाने वाला आदर है। पूजा-वंदना में आर्पित पुष्प ‘‘अनित्यता’’ के प्रतीक होते हैं, प्रज्वलित दीप/मोमबत्ती ‘‘प्रज्ञा’’ के प्रतीक होते हैं तथा अगरबत्ती व अन्य सुगंधित द्रव तथागत व बाबासाहेब के गुणों की ‘‘कीर्ति’’ के प्रतीक होते हैं। मिट्टी के बर्तन (कलश) ‘क्षणभंगुरता’ का एवं घड़े के पानी ‘विकाराग्री शांति’ व ‘शुद्ध निर्मल जीवन’ का प्रतीक होता है, तो ‘तीन सूत्रीय धागा’ बुद्ध, धम्म व संघ इन तीन रत्नों का प्रतीक होता है, जिसे हाथ में पकड़कर हम त्रिरत्नों के प्रति जीवन भर श्रद्धावान व निष्ठावान रहने का संकल्प लेते हैं।