सूबेदार मेजर रामजी मालोजी सकपाल (14 नवम्बर, 1843 – 02 फरवरी, 1913)  

जिनका बेटा(डाॅo अम्बेडकर) “विश्वरत्न” है।
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

बोधिसत्व बाबा साहब डॉ.भीमराव आंबेडकर जी के पिताजी सूबेदार मेजर रामजी मालोजी सकपाल जी का जन्म 14 नवम्बर, 1843 को
अम्बावाड़े (महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले) में हुआ था । उनके पिताजी अर्थात बाबा साहब के दादा मालोजी सकपाल जी ईस्ट इंडिया कंपनी की बम्बई सेना के हवलदार पद से सेवानिवृत्त हुए थे । युद्ध में बहादुरी के एवज में उन्हें कुछ भूमि आवंटित की गई थी । मालोजी सकपाल की दो संताने रामजी (पुत्र) और मीरा बाई (पुत्री) थी। अपने पिता मालोजी सकपाल की तरह ही रामजी भी सेना में शामिल हो गये, उनके रेजिमेंट के सूबेदार मेजर धर्मा मुखाडकर थे, जो महार जाति के थे । मेजर धर्मा महाराष्ट्र के पाडे जिले के मुखाड गांव के निवासी थे, जिनका परिवार क्षेत्र का सम्मानित परिवार था और उनके सभी सातों भाई ब्रिटिश सेना में महत्वपूर्ण ओहदों पर थे । धीरे-धीरे रामजी सकपाल और मेजर धर्मा मुखाडकर के बीच घनिष्ट संबंध स्थापित हुआ । मेजर धर्मा ने अपनी बेटी भीमा मुखाडकर का विवाह रामजी सकपाल के साथ करने का निश्चय किया था, लेकिन आर्थिक असमानता के कारण मेजर धर्मा के परिवार के लोगों ने पहले इस प्रस्ताव का विरोध किया था, लेकिन अंत में सभी सहमत हो गये और 1865 में रामजी सकपाल तथा भीमा मुखाडकर का विवाह सम्पन्न हुआ । विवाह के समय रामजी सकपाल की उम्र 21 वर्ष और भीमा मुखाडकर(माता भीमाबाई) की उम्र 13 वर्ष की थी। भीमाबाई जी का जन्म 14 फरवरी 1852 को हुआ था । भीमाबाई की गरीबी के कारण उनकी मां के अतिरिक्त उनके मायके से उनसे कोई मिलने नहीं आता था, इसलिए उन्होंने अपने मायके वालों से संकल्प के साथ कहा कि मैं मायके तभी आऊंगी जब मै जेवरों से भरी पूरी अमीरी प्राप्त कर लूंगी ।
रामजी सकपाल जी एक प्रबुद्ध व्यक्तित्व थे, जिन्होंने कड़ी मेहनत के द्वारा अंग्रेजी भाषा में प्रवीणता प्राप्त की थी । उन्होंने पूना में सेना नार्मल स्कूल से शिक्षण में डिप्लोमा प्राप्त किया । जिसके उपरान्त वह सैनिक स्कूल में शिक्षक नियुक्त हुए । उन्होंने प्रधानाचार्य के रूप में सेवा की और सूबेदार मेजर का पद प्राप्त किया । रामजी सकपाल अस्पृश्य महार जाति के कबीर पंथ को मानते थे । रामजी सकपाल और भीमाबाई की कुल 14 संतानें हुई थी, जिसमें बाबा साहब भीमराव आंबेडकर “चौदहवीं संतान” थे, जिनका जन्म 14 अप्रैल, 1891 को महू छावनी में हुआ था। हालांकि उन 14 संतानों में से केवल तीन बेटे बालाराव, आनन्दराव तथा भीमराव और दो बेटियां मंजुला व तुलसा ही जीवित रहीं, इसके कारण भीमाबाई अत्यंत दुखी रहती थी, जिससे उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया। संत कबीर, जोतिबा फूले के सामाजिक आन्दोलन ने रामजी सकपाल के परिवार को अत्यधिक प्रभावित किया था । अपने बच्चों के प्रति रामजी सकपाल का रवैया मूलरूप से भीमराव के चतुर्दिक सर्वांगीण विकास का था। रामजी भी अंग्रेजी और गणित में निपुण थे । वह पूर्णतया मद्यत्यागी थे। सूबेदार मेजर रामजी सकपाल को भीम के जन्म के एक वर्ष के भीतर ही बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा । ब्रिटिश सरकार ने सेना में महारों की भर्ती पर रोक लगा दी। इससे सूबेदार मेजर रामजी सकपाल को 1893 मे अनिवार्य सेवानिवृत्ति प्रदान कर दी गई तब भीमराव मात्र ढ़ाई वर्ष के थे । जब भीमराव पांच वर्ष के हुए, तो उनकी मां भीमाबाई ने भीम का नाम स्कूल में लिखाने की जिद की तो रामजी ने भीमराव का दापोली के प्राथमिक स्कूल में दाखिल करवा दिया । सेवानिवृत्ति के पश्चात रामजी सकपाल को 50 रूपये मासिक पेंशन मिलती थी । दापोली के असमान अमानवीय जातीय वातावरण में बच्चों की पढ़ाई की बाधा को ध्यान में रखकर उन्होंने बम्बई का रूख किया था, जहां उन्हे कोई नौकरी नहीं मिली और अंततः वह सतारा आ गये। यहां उन्हें लोक निर्माण विभाग में स्टोरकीपर की नौकरी मिल गई । यहां उन्होंने आनंदराव व भीमराव को सतारा के कैम्प स्कूल में भर्ती कराया । इसी बीच रामजी सकपाल का तबादला कोरेगांव हो गया और वह अकेले ही कोरेगांव चले गये । सतारा आने के कुछ समय बाद भीमाबाई का निरंतर बीमारी के कारण स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया, फलतः 18 मई, 1897 को भीमाबाई का देहान्त हो गया। उस समय भीमराव मात्र 06 वर्ष के थे । मां के देहान्त के बाद भीमराव का पालन उनकी बुआ मीराबाई ने किया, जो स्वयं अपंग थी ।
अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद रामजी सकपाल को जीवन की चुनौतियां अधिक विकराल हो गयीं। फिर भी रामजी सकपाल ने भीमराव की शिक्षा की महत्वाकांक्षा में कभी कमी नहीं आने दिया । रामजी सकपाल बड़े ही दृढ़ निश्चयी व्यक्तित्व थे, अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए विशेषरूप से भीमराव के बौद्धिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए वह आजीवन प्रतिबद्ध रहे। वर्ष 1904 में रामजी सकपाल लोकनिर्माण विभाग से सेवानिवृत्त होने के बाद सपरिवार बम्बई आ गये तथा भीमराव को एलफिस्टन हाईस्कूल में दाखिला दिलाया। बम्बई में प्रवास के दौरान परेल में चावला सुधार ट्रस्ट के किराये के मकान के एक रूम में रामजी सकपाल ने विशेषरूप से भीमराव का अत्यधिक खयाल रखा । वह अपने पुत्र को जल्दी सोने के लिए कहते और स्वयं दो बजे रात्रि तक काम करते रहते थे । सोने से पहले अपने पुत्र को पढ़ने के लिए जगा देते थे। पिता के सानिध्य में भीमराव ने अनुवाद में प्रवीणता प्राप्त कर ली । अपने पिता की भाषाओं में अभिरूचि के कारण अंग्रेजी भाषा में भीमराव का ज्ञान अपने सहपाठियों की तुलना में बेहद अच्छा था । भीमराव अच्छी पुस्तकों के संग्रहक थे, जिसमें उनके महान पिता का सहयोग बराबर रहा । प्रायः रामजी सकपाल अपनी बेटियों से उधार लेकर या उनको शादी के समय तोहफे के रूप में दिए गये गहनों को बंधक रखकर, जिसे वह सेवानिवृत्ति के बाद 50 रूपये अल्पराशि में मिलने वाले पेंशन से चुकता करते थे, उदारतापूर्वक समय समय पर नई पुस्तकें भीमराव को उपलव्ध कराते थे । रामजी सकपाल को जब घर का खर्च चलाना कठिन हो गया, तो उन्होंने पढ़ने में अरूचिकर आनंदराव की पढ़ाई बंद करवा दी  तथा उनको जी.आई.पी. वर्कशाप में नौकरी पर लगवा दिया और थोड़े दिन पश्चात आनंदराव का विवाह करवा दिया । भीमराव भी जब सोलह वर्ष के थे, तो उनका भी विवाह नौ वर्षीय रामी वालंगकार से 1907 को भायखला बाजार के खुले शेड में सम्पन्न हो गया था। विवाह के बाद भीमराव की जीवनसंगिनी रमाबाई कहलाईं ।
14 अप्रैल, 1907 को भीमराव ने मैट्रीक की परीक्षा पास की । उस समय एक अछूत बालक का मैट्रिक पास करना बहुत ही बड़ी बात थी । भीमराव आम्बेडकर ने जब इन्टर की परीक्षा पास की, तो उनके पिता के अंतस में प्रसन्नता और चिंता के भाव पैदा हुए, प्रसन्न इसलिए कि भीमराव इंटर पास करने में सफल रहे और चिंता इसलिए कि आर्थिक विपन्नता के कारण वह भीमराव की उच्च शिक्षा की व्यवस्था कैसे करेंगे । रामजी सकपाल को विल्सन हाई स्कूल के प्राचार्य कृष्णा जी अर्जुन केलुसकर का ध्यान आया, जो भीमराव को पढ़ने के लिए किताबें दिया करते थे, जिनका बड़ौदा के महाराजा सयाजी गायकवाड़ से अच्छे संबंध थे । केलुसकर गुरूजी ने भीमराव को महाराज सयाजीराव गायकवाड़ के पास लेकर गये, जो उन दिनो बम्बई आये हुए थे और उनसे भीमराव के आगे की पढ़ाई के लिए छात्रवृति की सिफारिश की। तब महाराजा ने भीमराव के साक्षात्कार से संतुष्ट होने के बाद प्रतिमाह 25 रूपये की छात्रवृत्ति देना स्वीकार किया, जिसके फलस्वरूप 03 जनवरी, 1908 को बम्बई के एलफिंस्टन कॉलेज में भीमराव ने दाखिला लिया । भीमराव 14 अप्रैल, 1912 में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जनवरी, 1913 में बड़ौदा राज्य सेना में लेफ्टीनेन्ट के रूप में बड़ौदा राज्य की सेवा की । भीमराव को बड़ौदा में 15 दिन ही हो पाये थे कि उन्हें एक तार मिला कि उनके पिता बम्बई में गम्भीर रूप से बीमार हैं । वह अपने पिता के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए तुरंत बड़ौदा से चल दिए। अपने घर के रास्ते में वह सूरत में अपने पिता के लिए मिठाई लेने के लिए उतर गये, जहां उनकी ट्रेन छूट गई । अगले दिन वह जब बम्बई पहुँचे तो वह अपने अत्यंत बीमार पिताजी की नजरों के सामने भौचक्क खड़े थे। पिताजी की ढूंढती हुई आंखे अपने प्रिय बेटे पर जाकर रूक गई, जिसमें वह अपने विचारों, अपने समाज की नयी उम्मीदें तथा उनका अस्तित्व ढूंढ रहे थे । वह अपने जर्जर कमजोर हाथ को अपने पुत्र के पीठ पर ले गये और अगले ही पल मृत्यु की खड़खड़ाहट उनके गले में थी । उनकी आंखे बंद हो गई और हाथ पैर स्थिर हो गये । बालक भीमराव पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, सांत्वना के शब्द उनके दिल को शान्त करने में विफल रहे। उनका जोर-जोर से विलाप करना उनके परिवार के सदस्यों को रोने से न रोंक सका । इस प्रकार 02 फरवरी, 1913 जो उनके पिताजी की मृत्यु का दिन था, भीमराव अम्बेडकर जी के जीवन में सबसे दुखद दिन था । वह अपने पुत्र भीमराव को, जीवन की लड़ाई लड़ने और अपने तरीके से दुनिया को सुधारने के लिए अपने पीछे छोड़ गये । बालक भीमराव के स्कूली दिनों, जो दपोली से शुरू हुआ था, से उनके बी.ए. की डिग्री पूरी होने तक, पिता रामजी सकपाल उनके साथ एक प्रेरणादायक दूत के रूप में खड़े रहे । पिताजी रामजी बालक भीमराव के मन और व्यक्तित्व को मानवीय आकार देने के लिए आजीवन प्रतिबद्ध रहे। रामजी एक शिल्पकार की तरह धैर्य, ईमानदारी, नेतृत्व, अथक परिश्रम और समर्पण के साथ बालक भीमराव के व्यक्तित्व का सफल निर्माण किया। रामजी के द्वारा दिखाये गए रास्ते, भीमराव को स्वयं को विदेशों में शिक्षित और अपने विचारों को विकसित करने में, जो उन्हें दीन दुखियों के मुक्तिदाता बनाने में, मदद की । विश्व रत्न, बोधिसत्व बाबा साहब डॉ. भीमराव आंम्बेडकर जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक, जिसके सिद्धांतों पर ही भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई, “The problem of rupee” (रूपये की समस्या) को अपने माता-पिता को, उनकी शिक्षा के प्रति उनके अथक प्रयास और आत्मज्ञान के लिए, आभार के रूप समर्पित किया है।
विश्व रत्न बोधिसत्व बाबा साहब डॉ. भीम राव अंबेडकर जी जैसे विश्वरत्न सुपुत्र के पिता, स्वाभिमानी, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, दृढ़ इच्छाशक्ति और किसी भी संकट का साहस व सूझबूझ के साथ सामना करने वाले संत कबीर के वैज्ञानिक पथ के वाहक सूबेदार मेजर रामजी मालोजी सकपाल जी के स्मृति दिवस (02 फरवरी, 1913) पर कृतज्ञतापूर्ण नमन व विनम्र आदरांजलि💐🙏

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You might also like