“तू इधर-उधर की बात न कर, यह बता कि क़ाफ़िला लुटा क्यूं, मुझे रहज़नों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।”

● क्या हम बहुजन अपनी आमदनी का या अपनी योग्यता (जिस किसी भी क्षेत्र के हम टैलेंटेड हैं)का या अपने समय या आय का पांच प्रतिशत ही अपने समाज को वापस लौटा रहे हैं? या इसे करने में हमें अब तक किन कथित जातिवादियों ने रोंक रखा है? या हम अभी भी किसी से भयभीत हैं अथवा असमर्थ हैं?

● हमें अपने घरों, बैठकों, बरामदों में बहुजन महापुरुषों-संविधान के चित्र-प्रतिमा-स्टेच्यू लगाने से अभी तक किसने रोंक-रखा है। किसी कथित जातिवादी ने या हम स्वयं ने?

● अंधविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, अवैज्ञानिक-ढ़कोसले, महिलाओं के सम्मान के विरुद्ध रीति-रिवाज, परंपराएं, प्रथाएं, असंवैधानिक रूढ़ियां मानने और परिवार सहित मनवाने के लिए कौन से कथित जातिवादी हमें बाध्य कर रहे हैं या हम स्वयं जानबूझकर यह सब कर रहे हैं?

● बहुजन महापुरुषों के साहित्य और उनके विचार, भारत का संविधान को अपने स्वयं के घरों में रखने, उन्हें पढ़ने, अपनी स्वयं की किताबें लिखने, अंतरजातीय विवाह अपनाने और इन सबको बच्चों व परिवार को बताने से कौन कथित जातिवादी ने हमें रोंक रखा है, या हम स्वयं जान-बूझकर ऐसा कर रहे हैं?

● हम जैसा संविधान सम्मत सम्मान की अपेक्षा अपने लिए पूरे समाज से करते हैं या जैसा सम्मान दूसरे धनाढ्य समाज के लोगों के साथ स्वयं करते हैं, क्या ठीक वैसा ही सम्मान अपने ही समाज के निर्धन और पिछङे लोगों से व्यवहारिक रूप से करते दिखते हैं, यदि नहीं तो क्यों या फिर ऐसा करने से हमें किसने रोंक रखा है, अथवा हम ऐसा जानकर करते हैं।

इन सवालों के जवाब हमें सपरिवार स्वयं अपने ही अंदर तलाशने होंगे।

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