महाराष्ट्र(महारों का राष्ट्र) के श्रमण विचारक, संत शिरोमणि चोखामेला जी का जन्म दिनांक 04 जनवरी, 1300 को महार राष्ट्र की महार जाति में मेहुनाराजा नामक गाँव में हुआ था, जो जिला बुल्ढाना की दियोलगावं राजा तहसील में आता है। पहले संत चोखामेला पंढरपुर में रह रहे थे, परंतु संत नामदेव के कार्य व्यवहार संत चोखामेला को पंढरपुर खींच लाया। वह अपनी पत्नी सोयरा और पुत्र कर्मामेला के साथ पंढरपुर के पास मंगलवेध में आ कर रहने लगे। वह महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत थे जिन्होने कई अभंगों की रचना की है। इसके कारण उन्हें भारत का महार जाति पहला महान् कवि कहा गया है। सामाजिक-परिवर्तन के आन्दोलन में चोखामेला पहले संत थे, जिन्होंने भक्ति-काल कहे जाने वाले उस दौर में सामाजिक-गैर बराबरी को लोगों के सामने पहली बार खुलकर रखा। वह अपनी रचनाओं में बहुजन समाज के लिए खासे चिंतित दिखाई पड़ते हैं। यह विडम्बना ही है कि आज भी संत चोखामेला के जीवन से सम्बन्धित बहुत कम जानकारी हम बहुजनों को उपलब्ध है। संत चोखामेला को महार जाति का होने के कारण मन्दिर में प्रवेश की उन्हें इजाजत नहीं थी। चोखामेला की एक बहन निर्मला व एक शिष्य बंका का भी उल्लेख आता है। बंका, चोखामेला की पत्नी सोयरा का ही भाई था।
चोखामेला वारकरी सम्प्रदाय के थे। वारकरी सम्प्रदाय के अनुयायी जो पूरे महाराष्ट्र में फैले हैं। वारकरी का अर्थ है, यात्री। यह अभंग गाते हुए बुद्ध की भांति नंगे पैर चलते हैं। अभंग और ओवी महाराष्ट्र के संतों की वाणी है। अभंग, ओवी का ही एक रूप है जो महिलाऐं गाती हैं। चोखामेला के अभंगों की संख्या 300 के करीब बतलाई जाती हैं जिनमें सोयरा, कर्ममेला और बंका के नाम से भी रचित अभंग मिलते हैं। इनमे से कई अभंग चोखामेला पर हुए जातीय अमानवीय अत्याचारों का कारुणिक और ह्रदय-स्पर्शी वर्णन करते हैं। भारत में भक्ति-काल को मोटे तौर पर एक सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन कहा जा सकता है जिसके तहत सदियों की सामाजिक-धार्मिक जड़ता को संत- महात्माओं के द्वारा प्रश्नगत किया गया। भक्ति-आन्दोलन से निश्चित रूप से निम्न कही जाने वाली जातियों को बल मिला। वह दूर से ही सही, ढोल-मंजीरे के साथ उच्च जाति के कानों में अपनी आवाज पहुँचाने लगे। वह पूंछने लगे कि ‘नीच’ होने में उनका कसूर क्या हैं? कमोवेश यही स्थिति समाज में नारी की भी थी। बहुजनों के साथ सभी महिलायें भी पूंछने लगीं कि उसके साथ अछूत-सा बर्ताव क्यों होता है? नामदेव, जो दर्जी समाज के थे और जिनकी सामाजिक स्थिति शूद्रों में थी, चोखामेला को बहुत चाहते थे। वह चोखामेला के सामाजिक आंदोलन से अभिभूत थे। हमें ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं, जब नामदेव ने कर्मकांडी लोगों के क्रोध से चोखामेला का बीच-बचाव किया था। चोखामेला के बाप-दादाओं का कार्य गांव के उच्चवर्गीय घरों में मरे हुए जानवरों को उठा गाँव के बाहर ले जा कर ठिकाने लगाना होता था। इसके लिए उन्हें कोई मेहनतनामा नहीं दिया जाता था। तब, महारों के अलग मोहल्ले गाँव के बाहर होते थे। अमानवीय लोगों की जूठन पर महारों को गुजारा करने पर विवश होना होता था। महारों को शिक्षा प्राप्त करने की मनाही थी। उन्हें सामान्य सुविधाएँ जैसे सार्वजानिक कुँएं से पानी भरने की मनाही थी। उनके मन्दिर-प्रवेश पर पाबन्दी थी। उन्हें भारत का पहला दलित-कवि कहा गया है। सामाजिक-परिवर्तन के आन्दोलन में चोखामेला पहले संत थे, जिन्होंने भक्ति-काल के दौर में सामाजिक-गैर बराबरी को लोगों के सामने रखा। अपनी रचनाओं में वह दलित समाज के लिए खासे चिंतित दिखाई पड़ते हैं।
उनके भजन और उपदेश सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और व्यवहारिक जीवन के विशद और विविध अनुभवों से ओतप्रोत होते थे तथा वह जो भी कहते थे, वह सहज बोधगम्य होता था। एक सामान्य-सी सूचना पर हजारों लोग उन्हें सुनने के लिए उमड़ पड़ते थे। बारहवीं सदी के प्रारम्भ में बहुजन समाज में जागृति फैलाने में संत चोखामेला की विशेष भूमिका थी। चोखामेला जी उसी परम्परा के संत थे, जिसमें कबीर से लेकर रविदास, दादू, तुकाराम तक आते है।सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन में चोखामेला पहले संत थे, जिन्होंने भक्ति काव्य के जाने वाले दौर में सामाजिक गैर बराबरी को समाज के सामने खुलकर पहली बार रखा। अपनी रचनाओं में वह वंचित समाज के लिए खासे चिंतित दिखाई पड़ते हैं। उन्हें भारत के वंचित वर्ग का पहला कवि कहा कहा जाता है। उनके उपदेशों को सभी लोग बड़े प्रेम से सुनते थे। वरकरी संप्रदाय में ज्ञानेश्वर और एकनाथ जैसे उच्च जातीय संत हुए तो नामदेव दर्जी, तुकाराम कुनबी, चोखामेला महार और गोरा कुम्हार आदि बहुजन संत भी हुए और यह सभी संत एक दूसरे का आपस में खूब आदर करते थे। इनमें बहिणाबाई जैसी महिलाएं और शेख मुहम्मद जैसे कुछ मुसलमान संत भी हुए। जाति-पांति और वर्ण व्यवस्था में भी यह नये महत्व का कार्य प्रतिष्ठित हो रहा था। इसलिए मराठी संत साहित्य के विद्वान गं.बा.सरदार ने इसे भक्ति काव्य की जगह आध्यात्मिक मानववाद का नया नाम दिया। इस तरह संतों के इस आंदोलन से एक सांस्कृतिक समुदाय के रूप में खुद को पहचानने की सामाजिक चेतना पहली बार विकसित हुई। अस्मिता की यही चेतना आगे चलकर तत्कालीन मराठा राज्य के उत्कर्ष की पृष्ठभूमि बनी और छत्रपति शिवाजी महाराज इसके सबसे बड़े प्रतीक बनकर उभरे। संत चोखामेला जी का देहावसान सन 1338 में पंढरपुर के पास मंगलवेदा गाव में मजदूरी काम करते समय दीवार के गिरने के हादसे में हो गया था उनका अंतिम संस्कार विट्ठल मंदिर के सामने किया गया, जहाँ बाद में उनकी समाधि भी बनाई गई, जिसे आज भी देखा जा सकता है। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में, बाबा साहब डॉ.भीमराव आंबेडकर जी ने उस मंदिर जाने का प्रयास भी किया, लेकिन उन्हें भी चोखामेला जी की कब्रगाह पर ही रोक दिया गया और महार होने के कारण उस बिंदु से आगे प्रवेश से इनकार कर दिया गया ।बाबा साहब ने संत चोखामेला, संत नंदनार और संत रविदास जी की स्मृति में अपनी पुस्तक प्रसिद्ध पुस्तक “द अनटचेबल्स: हू आर दे एंड व्हाई दे बिकम अनटचेबल्स” को समर्पित किया था।
वास्तव में संत चोखामेला का आन्दोलन भक्ति आन्दोलन नहीं, बल्कि मूलनिवासी बहुजन समाज के लिए ऊंच-नीच, पाखंड, कर्मकांड, आडम्बर से मुक्ति का आन्दोलन था, जिसे शातिराना ढ़ंग से भक्ति आन्दोलन से जोड़ दिया जाता है, वह वास्तव मे पाखंडवाद और गैर-बराबरी के विरुद्ध विद्रोह था, जिसको संत रविदास, संत कबीर दास जी, गुरुनानक, संत चोखामेला, गुरु नारायना, गुरु जी जैसे क्रांतिकारी संतो और गुरुओ ने अपने अपने-अपने से तरीके से अपने-अपने समय मे चलाया था। असल में वह तथागत बुद्ध के ही आन्दोलन का प्रतिरूप था। इन संतो और गुरुओ का उद्देश्य अमानवीयता के विरुद्ध विद्रोह कर आडम्बर से मानासिक रूप से गुलाम बनाई गयी मूलनिवासी जनता को मुक्ति दिलाने का था।
संत चोखामेला जी के जन्म दिवस 04 जनवरी पर कृतज्ञतापूर्ण नमन💐🙏
Leave a Reply