महादेव गोविन्द “रानाडे” (18 जनवरी, 1842-16 जनवरी, 1901)  

भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, विद्वान और न्यायविद महादेव गोविंद रानाडे ने उस समय की सामाजिक परिस्थितियों में समाज सुधार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। उनका जन्म निंफाड़ में आज ही के दिन 18 जनवरी, 1842 को एक कट्टर चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आरम्भिक काल उन्होंने कोल्हापुर में बिताया, जहां उनके पिता मंत्री थे। उनकी प्रथम पत्नी की मृत्यु के बाद, उनके सुधारवादी मित्र चाहते थे, कि वह एक विधवा स्त्री से विवाह कर करें, परन्तु, उन्हें परिवार के दबाव में एक बालिका, रामाबाई रानाडे  से विवाह करने पर बाध्य होना पङा, जिसे बाद में उन्होंने शिक्षित भी किया। पति की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने उनके शैक्षिक एवं सामाजिक सुधार कार्यों को आगे बढ़ाया। उनकी कोई संतान नहीं थी। गोविंद रानाडे ‘दक्कन एजुकेशनल सोसायटी’ के संस्थापकों में से एक थे। रानाडे स्वदेशी के समर्थक और देश में ही निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करने के पक्षधर थे। पुणे में आरंभिक शिक्षा पाने के बाद रानाडे ने ग्यारह वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ी शिक्षा आरंभ की। 1859 ई. में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और 21 मेधावी विद्यार्थियों में उनका अध्ययन मूल्यांकन शामिल था। आगे शिक्षा जारी रखने के लिए उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। पुणे के ‘एलफिंस्टन कॉलेज’ में वह अंग्रेज़ी के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। एल.एल.बी. पास करने के बाद वह उप-न्यायाधीश नियुक्त किए गए। वह निर्भीकतापूर्वक निर्णय देने के लिए प्रसिद्ध थे। शिक्षा प्रसार में उनकी रुचि विशेष रूचि थी जब वह लोकसेवा की ओर मुड़े, तो उन्होंने देश में अपने ढंग के महाविद्यालय स्थापित कराने के लिए विशेष प्रयास किए। महादेव गोविंद रानाडे को अनेक क्षेत्रों में कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। इससे जो समस्याएँ उत्पन्न हुईं, उससे उन्हें पीड़ाओं को भी सहना पड़ा। उस समय समाज सुधार की रस्सी पर चलने जैसा कठिन काम उन्होंने किया था। पुरानी परंपराओं को तोड़ने के कारण वह पुरातनपंथी लोगों के भी कोप भाजन भी बने थे। रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने जनता से बराबर संपर्क बनाये रखा। दादाभाई नौरोजी के पथ प्रदर्शन में वे शिक्षित लोगों को देशहित के कार्यों की ओर प्रेरित करते रहे। प्रार्थना समाज के मंच से रानाडे ने महाराष्ट्र में अंधविश्वास और हानिकार रूढ़ियों का खुलकर विरोध किया था। धर्म में उनका अंधविश्वास नहीं था। वह मानते थे कि देश काल के अनुसार धार्मिक आचरण बदलते रहते हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वह बाल विवाह के कट्टर विरोधी और विधवा विवाह के प्रबल समर्थक थे। राजनीतिक सम्मेलनों के साथ सामाजिक सम्मेलनों के आयोजन का श्रेय उन्हीं को है। वह मानते थे कि मनुष्य की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक प्रगति एक दूसरे पर आश्रित है। अत: ऐसा व्यापक सुधारवादी आंदोलन होना चाहिए, जो मनुष्य की चतुर्मुखी उन्नति में सहायक हो। वह सामाजिक सुधार के लिए केवल पुरानी रूढ़ियों को तोड़ना ही पर्याप्त नहीं मानते थे बल्कि उनका कहना था कि रचनात्मक कार्य से ही यह संभव हो सकता है। वह देश में निर्मित वस्तुओं के उपयोग पर बल देते थे। देश की एकता उनके लिए सर्वोपरि थी। उन्होंने कहा था कि- “प्रत्येक भारतवासी को यह समझना चाहिए कि पहले मैं भारतीय हूँ और बाद में कुछ और। रानाडे विद्वान व्यक्तित्व के थे। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह, मालगुजारी क़ानून, धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आदि अनेक ग्रंथों की रचना भी की थी।
रानाडे ने पुणे में सार्वजनिक सभा की स्थापना की और वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे।
18 जनवरी, 1943 को गोखले एम एमोरियल हॉल, पूना में महादेव गोविन्द रानाडे के 101वें जन्मदिन समारोह में “रानाडे गांधी और जिन्ना” शीर्षक पर संबोधन करते हुए बाबा साहब डॉ.भीमराव आंबेडकर जी ने ‘महाराष्ट्र के सुकरात’ कहे जाने वाले महादेव गोविंद रानाडे और फूले को समकालीन बताते हुए रानाडे की प्रशंसा करते हुए कहा कि “रानाडे में एक स्वाभाविक नेकनीयती थी, उनमें ज़बरदस्त बौद्धिक क्षमता थी तथा वह न सिर्फ़ वकील और हाई कोर्ट के जज थे, बल्कि आला दर्जे के अर्थशास्त्री भी थे। वह शीर्ष स्तर के शिक्षाशास्त्री और उसी स्तर के धर्म शास्त्र के ज्ञाता भी थे।”
एक समाज सुधारक, भारतीय शिक्षाविद, न्यायविद, लेखक, अर्थशास्त्री, इतिहासकार धार्मिक और समाज सुधारक, समाज की अनेक कुरीतियों को खत्म करने के लिए सार्थक प्रयास करने वाले, समाज को नई आधुनिक राह दिखाने वाले जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे का निधन 16 जनवरी, 1901 को हो गया था।

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