कालाराम मन्दिर सत्याग्रह (03 मार्च,1930)

1930-1936 (05 वर्ष 11 महिने, एवं 07 दिन)
कालाराम मन्दिर सत्याग्रह बाबा साहब द्वारा बहुजनों को समानता का केवल अहसास कराने के लिए मन्दिर प्रवेश के लिए चलाया गया एक महत्वपूर्ण आन्दोलन था। नासिक के कालाराम मन्दिर में यह सत्याग्रह हुआ था। क्योंकि भारत देश में गैर पिछङों को जहां जन्म से ही मन्दिर प्रवेश का अधिकार था, किन्तु दलितों को यह अधिकार प्राप्त नहीं था। इस सत्याग्रह में करीब 15 हजार बहुजन समाज के महिला-पुरूष शामिल हुए थे, जिनमे ज्यादातर महार, मांग व अन्य समुदाय के थे। महिलाओं की इसमें भारी संख्या थी। 05 वर्ष 11 महिने, एवं 7 दिन तक यह सत्याग्रह जारी रहा था। नासिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश को लेकर उनके इस सत्याग्रह और संघर्ष में उन्होंने पूछा कि “यदि ईश्वर सबके हैं तो उनके मन्दिर में कुछ ही लोगों को प्रवेश क्यों दिया जाता है।” सभा को संबोधित करते हुए बाबा साहब ने कहा था कि “आज हम मंदिर में प्रवेश करने वाले हैं, मंदिर में जाने से हमारी सारी समस्याएं ख़त्म नहीं हो जाएंगी। हमारी समस्याएं सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और शैक्षणिक हैं।” इस आन्दोलन में बाबा साहब के साथ उनके अनन्य सहयोगी दादा साहब गायकवाड, सहस्त्रबुद्धे, देवराव नाईक, डी.व्ही. प्रधान, बालासाहब खरे तथा स्वामी आनन्द आदि थे। बाबा साहब ने कहा था – “लोग इस बात पर भी विचार करें कि क्या मन्दिर प्रवेश समाज में दलितों के सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने का अन्तिम उद्देश्य है ? या उनके उत्थान की दिशा में यह पहला कदम है ? यदि यह पहला कदम है, तो अन्तिम लक्ष्य क्या है ? यदि मन्दिर प्रवेश अन्तिम लक्ष्य है, तो दलित वर्गों के लोग उसका समर्थन कभी नहीं करेंगे। दलितों का अन्तिम लक्ष्य है सत्ता में भागीदारी।’’ पूरे महाराष्ट्र भर से लोग इस सत्याग्रह में शामिल होने के लिए नासिक शहर में आये थे। 02 मार्च, 1930 को बाबा साहब की अध्यक्षता में एक सभा आयोजित की गई थी। इस सभा में सत्याग्रह किस प्रकार करना है, इस पर निर्णय हुए। अहिंसा के मार्ग से सत्याग्रह करना है, यह सूचना सबको दी गई। अगले दिन 03 मार्च, 1930 को सत्याग्रहियों की चार टुकड़ियां बनाई गयीं, जो मन्दिर के चारों दरवाजों पर तैनात थीं। पुलिस तथा मन्दिर के पुजारियों ने सत्याग्रहियों की मांग का विरोध करते हुए मन्दिर के सभी दरवाजे बन्द कर रखे थे। सुरक्षा कर्मियों ने भी पूरे मन्दिर की एक कड़ी बना रखी थी, ताकी कोई अछूत मन्दिर में प्रवेश न करने पाये। इन सत्याग्रहियों पर हमला हुआ, पत्थर बरसाए गये तथा लाठियों से लोगों की पिटाई की गई। इसमें बाबा साहब भी लहूलुहान हो गए थे। इस सबके बावजूद भी दलितों ने गैर पिछङों पर हमला कर हिंसा नहीं की, क्योंकि “अहिंसा से सत्याग्रह करना हैं।” बाबा साहब के इस आदेश का पालन सभी सत्याग्रही कर रहे थे। यह करीब 06 साल तक चला, किंतु मन्दिर का दरवाजा दलितों के नहीं खुला। महाड़ सत्याग्रह के करीब दो वर्ष बाद 02 म मार्च, 1930 को बाबा साहब ने मंदिर प्रवेश सत्याग्रह भी चलाया था, जिसमें नासिक मंदिर (कालाराम मंदिर) प्रवेश सत्याग्रह सबसे प्रसिद्ध है, लेकिन इसका भी गैर-पिछङों ने तीखा विरोध किया था और सत्याग्रहियों के साथ हिंसा भी की गयी थी। चावदार तालाब का पानी पीने के अधिकार के लिए सत्याग्रह के नतीजे के बाद मंदिर प्रवेश के अधिकार के लिए आखिर बाबा साहब ने क्यों सत्याग्रह किया? इसका उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है– ‘मैंने मंदिर-प्रवेश संबंधी आंदोलन इसलिए शुरू नहीं किया कि मैं चाहता था कि बहुजन समाज के लोग मूर्तिपूजक बने, अथवा मैं मानता था कि मंदिर प्रवेश का अधिकार मिल जाने से वे बराबरी प्राप्त कर लेंगे तथा इस समाज के अभिन्न अंग बन जाएंगे। मुझे लगा कि यह बहुजन समाज के लोगों को ऊर्जावान बनाने का तथा उन्हें उनकी स्थिति से वाकिफ़ कराने का सर्वोत्तम तरीका है। महाड़ सत्याग्रह और कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह के बाद बाबा साहब इस तथ्य से पूरी तरह वाकिफ हो गए थे कि यह समाज असमानता की बुनियाद पर खड़ा है और दलितों को इसमें समानता का हक प्राप्त नहीं हो सकता है। इसमें सुधार और दलितों को यहां समान हक दिलाने के अपने प्रयासों (वर्ष 1920 से 1930 के मध्य) के संबंध में स्वयं उन्होंने लिखा कि ‘लंबे समय तक मैं स्वयं यही मानता रहा कि हम अपने समाज को उसकी विकृतियों से मुक्त करा सकते हैं और अछूतों को बराबरी की शर्तों पर उसमें समाहित कर सकते हैं। महाड़ में चवदार तालाब सत्याग्रह और नासिक मंदिर (कालाराम मंदिर) प्रवेश सत्याग्रह, दोनों इसी उद्देश्य से प्रेरित थे। इसी को मद्देनजर रखते हुए हमने असमानता की प्रतीक एक प्रसिद्ध पुस्तक का दहन किया और सामूहिक धागा-धारण अनुष्ठानों का आयोजन किया था। खैर, अनुभव की बदौलत अब मेरे पास कहीं बेहतर समझ है। आज मुझे इस बात का पूरी तौर से यकीन हो चुका है कि गैर-पिछङों के बीच रहते हुए डिप्रेस्ड क्लासेज़ को बराबरी का दर्जा मिल ही नहीं सकता, क्योंकि यह समाज खड़ा ही असमानता की बुनियाद पर है। अब हमें इस असमान समाज का हिस्सा बने रहने की कोई चाह नहीं है।’ (उद्धृत, क्रिस्टोफ़ जैफरलो, भीमराव आंबेडकर, एक जीवनी, राजकमल प्रकाशन, पृ. 45) 
महाड़ सत्याग्रह और कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह की असफलता के बाद बाबा साहब का असमानतायुक्त समाज से इस कदर मोहभंग हुआ कि उन्होंने 12 अक्टूबर, 1935 को येओल में दलित वर्ग के सम्मेलन में एक संकल्प रखा। संकल्प में उन्होंने वहां उपस्थित दसियों हजार उत्साही कार्यकर्ताओं के समक्ष धर्मपरिवर्तन का प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा, ‘मैं जिस रूप में पैदा हुआ हूं और अस्पृश्यता की मार झेलता रहा हूं, लेकिन मैं उस रूप में मरूंगा नहीं और अपने इस संकल्प को उन्होंने ‘जाति का विनाश’ में भी दोहराया। अंतिम तौर पर उन्होंने अपने लाखों अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर, 1956 को पूर्व धर्म का औपचारिक तौर पर भी परित्याग कर दिया और बौद्ध धम्म ग्रहण कर लिया। बौद्ध धम्म ग्रहण करते समय बाबा साहब और उनके अनुयायियों द्वारा ली गई 22 प्रतिज्ञाएं इस बात का सबूत हैं कि बाबा साहब का इस समाज से किस कदर से मोहभंग हुआ होगा।
वास्तविक रूप से बाबा साहब चवदार तालाब में पानी पीने नहीं गए थे, बल्कि इस तथ्य को साबित करने गए थे कि एक मनुष्य होने के चलते उन्हें भी गैर-पिछङों की तरह समान हक है, जिस तालाब में अन्य लोग पानी पी सकते हैं, यहां तक की जानवर तक पानी पी सकते हैं, उस तालाब में समाज के हिस्से के रूप में आखिर दलित क्यों पानी नहीं पी सकते हैं। चावदार तालाब में पानी पीने के अधिकार के संघर्ष को बाबा साहब ने धर्मसंग्राम की संज्ञा दी थी। 
दरअसल, प्रश्न पानी पीने का नहीं था, प्रश्न यह था कि समाज का अंग कहे जाने के नाते अस्पृश्यों को अन्य लोगों के समान अधिकार प्राप्त है या नहीं? यही तय करने का प्रश्न चवदार तालाब में पानी पीने के प्रकरण का आधार था। गैर-पिछङों द्वारा दलितों के पानी पीने के अधिकार का विरोध, दलितों के साथ हिंसा और उनके पानी पीने के बाद तालाब को शुद्ध करने की घटना ने यह साबित कर दिया कि वह दलितों को समान अधिकार देने के लिए किसी भी तरह से तैयार नहीं है, भले ही वह उन्हें सिद्धांत रूप में उसी समाज का हिस्सा मानते रहे हों।
कालाराम मन्दिर सत्याग्रह एवं चावदार तालाब का पानी पीने के बहाने बहुजनों को सम्मान, गरिमा, समानता व मानवीयता-मनुष्यता का अहसास कराने वाले बहुजनों के मसीहा बोधिसत्व बाबा साहब डॉ.भीमराव आंबेडकर जी को कालाराम मन्दिर सत्याग्रह के स्थगन दिवस 03 मार्च (1930) पर कृतज्ञतापूर्ण शत-शत नमन एवं जय संविधान 💐💐🙏🙏

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