अब्दुल कय्यूम अंसारी जी (01 जुलाई, 1905-18 जनवरी, 1973)

जब पसमांदा समाज के लोगों की राजनीतिक भागीदारी का सवाल सामने आता है तो जेहन में अब्दुल क़य्यूम अंसारी का नाम सबसे पहले आता है। बिहार के डेहरी-ऑन-सोन में दिनांक 01 जुलाई, 1905 में जन्में अब्दुल क़य्यूम अंसारी जी ने जब समाज को नजदीक से देखना चाहा तो उस वक़्त समाज, अंग्रेजों और जातीय आकाओं के ज़ुल्म और अत्याचारों का मारा नजर आया। कम उम्र ही में इन्होंने अंग्रेज़ी सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया। असहयोग आंदोलन में तमाम राजनेताओं के साथ उन्होंने भी आंदोलन किया और केवल 16 साल की उम्र में वह जेल भी गये। अब्दुल क़य्यूम अंसारी जी का व्यक्तित्व बहुत ही स्वाभिमानी था, उनके राजनीति में जाने की दास्तान भी बहुत रोचक है। अली अनवर की ‘मसावात की जंग’ में इसका उल्लेख है। वर्ष 1938 में पटना सिटी क्षेत्र की सीट के लिए उपचुनाव होने वाला था। उन्होंने सोचा कि क्यों न इस सीट से अपनी किस्मत आजमाई जाए। पटना सिटी के नवाब हसन के घर पर विभिन्न प्रत्याशियों से दरखास्तें ली जा रहीं थी। अब्दुल कय्यूम अंसारी जी भी अपनी दरखास्त देने वहां गये थे। प्रत्याशी हेतु अपना आवेदन जमा कर वह अभी दरवाजे तक ही लौटे ही थे कि अन्दर से कह-कहों के साथ आवाज आयी कि- अब ‘जुलाहे’ भी एम एल ए बनने का ख्वाब देखने लगे। इतना सुनना था कि कय्यूम अंसारी जी फौरन कमरे के अन्दर गये और कहा कि ‘मेरी दरखास्त लौटा दीजिए, मुझे नहीं चाहिए आपका टिकट।’ इस घटना के बाद ही अब्दुल क़य्यूम अंसारी जी सक्रिय रूप से राजनीति में आ गये। मोमिन कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार के रूप में वर्ष 1946 के चुनाव में उन्होंने अपनी जीत हासिल की और पसमांदा समाज से आने वाले बिहार के पहले मंत्री भी बने। आज ही के दिन 18 जनवरी, 1973 को उनका निधन हो गया था। भारत के राजनीतिक क्षितिज पर वर्ष 1990 के दशक में उभरे पसमांदा आंदोलन को पारंपरिक अल्पसंख्यक राजनीति के झंडाबरदारों के कटु विरोध और निंदा का सामना करना पड़ा। मंडल राजनीति (1990) से प्रेरित पसमांदा आंदोलन ने न केवल अशरफ (उच्च जाति के मुस्लिम) मुसलमानों के वर्चस्व को चुनौती दी बल्कि उन्होंने सफलतापूर्वक इतिहास का पुनर्लेखन भी किया और ‘कुलीन’ अल्पसंख्यक राजनीति के प्रतीकों और भाषा को खारिज किया। “पसमांदा” एक फारसी शब्द है। जिसका शाब्दिक अर्थ है ”पीछे छूटे हुए’’। आज कुछ प्रमुख पसमांदा जातियां हैं-लालबेगी, हलालखोर, मोची, पासी, भंत, भटियारा, पमरिया, नट, बक्खो, डफाली, नलबंद, धोबी, साई, रंगरेज़, चिक, मिर्शीकार व दर्जी। अगर हम साधारण भाषा में कहें तो पसमांदा, वह पिछड़े बहुजन(शूद्र व अति-शूद्र) हैं, जिनके पूर्वजों ने सदियों पहले, जातिगत अत्याचारों से मुक्ति के लिए धर्म परिवर्तन किया था। परंतु धर्म बदलने से उनके साथ हो रहा जातिगत भेदभाव समाप्त नहीं हुआ और न ही उनकी भौतिक संरचना में ही कोई कमी आई। नि:संदेह, इस्लाम समानता और भाईचारे का हामी है। परंतु मीडिया में अक्सर इस आशय की खबरें भी छपती रही हैं कि अशरफ मुसलमान, मस्जिदों और कब्रिस्तानों में दलित मुसलमानों को प्रवेश नहीं करने देते। मुसलमानों में अंतर्जातीय विवाह भी कम ही होते हैं। पसमांदा नेता अपनी मुस्लिम पहचान की बजाए अपनी दलित और पिछड़ी पहचान पर अधिक ज़ोर देते हैं और मुसलमानों के एकसार समुदाय होने की मान्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। मुसलमानों में जातिगत भेदभाव के मद्देनजऱ, पसमांदा राजनीति का लक्ष्य है सभी धर्मों के दलितों और पिछड़ों की व्यापक ‘बहुजन एकता’ की स्थापना।
पसमांदा बुद्धिजीवी खालिद अनीस अंसारी, पसमांदा आंदोलन के इतिहास को दो कालखंडों में विभाजित करते हैं। इस राजनीति का दूसरा कालखंड शुरू हुआ मंडल राजनीति के बाद से। इसके शीर्ष नेता कय्यूमी अंसारी जी (1905-1974) बिहार की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री थे। कय्यूम अंसारी जी, पसमांदा आंदोलन के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक माने जाते हैं। भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया है। पसमांदा मुसलमानों ने अपने नए नायकों का निर्माण भी किया, जो कबीर-फुले-आंबेडकर परंपरा के थे। बाबा साहब की जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के कारण बाबा साहब को पसमांदाओं ने अपना नायक बनाया। पसमांदा मुसलमान, ओबीसी नेता कर्पूरी ठाकुर को भी अपना नायक मानते हैं। जब वह बिहार के मुख्यमंत्री थे, तब कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ी जातियों को 26 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया था और इनमें कई दलित मुस्लिम जातियां भी शामिल थीं। इसके अलावा, पसमांदा मुसलमानों ने मुस्लिम नीची जातियों के कई मुसलमानों को अपने नायक माना है। इनमें मुख्य हैं वीर अब्दुल हमीद जी(1933-1965), जिन्हें वर्ष 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में अदम्य साहस और शौर्य के लिए परमवीर चक्र (मृत्योपरांत) से सम्मानित किया गया है। प्रतिष्ठित शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां (1903-2006), जिन्हें वर्ष 2001 में भारत रत्न प्रदान किया गया था। इनके अलावा कय्यूम अंसारी जी व मौलाना अत-उर-रहमान आरवी, जो दारूल उलूम देवबंद के छात्र और राष्ट्रवादी स्वतंत्रता संग्राम सैनानी थे, मुख्य पसमांदा नेता हैं।
इन नायकों को अपनाकर पसमांदा मुसलमानों ने सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में ऊँची मुसलमान जातियों के वर्चस्व को चुनौती दी है। कय्यूम अंसारी जी, पसमांदा आंदोलन के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक माने जाते हैं। अपने पहले दौर में जहां पसमांदा आंदोलन का झुकाव कांग्रेस की ओर था वहीं दूसरे दौर में बहुजनों की सामाजिक न्याय की पार्टियों के साथ उसका गठबंधन होना स्वभाविक था। दमित तबकों की एकता के पीछे उनका ”दर्द का रिश्ता’’ था। दोनों के अनुभव एक थे, दोनों एक-से काम करते थे और दोनों को अपने समाज की ऊँची जातियों के हाथों अपमान सहना पड़ता था। इस तथ्य को पसमांदा आंदोलन का नारा ”पिछड़ा-पिछड़ा एक समान, हिंदू हो या मुसलमान’’ बड़े सहज व सटीक शब्दों में व्यक्त करता है। धर्मों से ऊपर उठकर, दलितों और पिछड़ों की एकता कायम करने में मान्यवर साहब कांशीराम जी की राजनैतिक विचारधारा का महत्वपूर्ण योगदान था। वह तथागत बुद्ध के बाद “बहुजन” अवधारणा के मुख्य अगुवा थे और उन्होंने भारतीय राजनीति में इस बहुजन एकता का निर्माण करके दिखाया, जिसमें दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक एक साथ शामिल हुए। पारंपरिक राजनीति भी कहती है कि दलित और मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। मान्यवर साहब कांशीराम जी का कहना था कि- शोषक उच्च जातियां अल्पसंख्यक हैं और दमित जातियां “बहुजन”।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनीतिज्ञ, राष्ट्रीय एकता, धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सद्भाव के प्रति अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता के लिए पहचाने जाने वाले, सामाजिक न्याय के प्रबल समर्थक व पसमांदा आंदोलन के प्रमुख नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी जी के स्मृति दिवस 18 जनवरी पर नमन💐🙏

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