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जननायक कर्पूरी ठाकुर जी

जननायक कर्पूरी ठाकुर जी
(24 जनवरी, 1924 – 17 फरवरी, 1988)
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 भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, समतावादी, सामाजिक न्याय के प्रबल पैरोकार, कुशल राजनीतिज्ञ तथा बिहार राज्य के दूसरे उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रहे जन-नायक कर्पूरी ठाकुर जी का जन्म भारत के बिहार प्रदेश में ब्रिटिश शासन काल के दौरान 24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के एक गांव पितौंझिया, जिसे अब कर्पूरीग्राम कहा जाता है, में बहुजन समाज की नाई जाति में हुआ था। जननायक जी के पिताजी का नाम गोकुल ठाकुर जी तथा माताजी का नाम रामदुलारी देवी जी था। इनके पिता गांव के सीमांत किसान थे तथा अपने पारंपरिक पेशा नाई का काम करते थे। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उन्होंने 26 महीने जेल में भी बिताए थे। वह 22 दिसंबर, 1970 से 02 जून, 1971 तथा 24 जून, 1977 से 21 अप्रैल, 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री  रहे। जननायक कर्पूरी ठाकुर जी को “जननायक” की उपाधि उन्हें अपने जीवन काल में ही विषमता, सामंतवाद, पूंजीवाद और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध अनवरत संघर्ष के लिए देशवासियों द्वारा दी गयी थी। वह बिहार राज्य में दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप मुख्यमंत्री रहे। 1952 में हुए पहली विधानसभा के चुनाव में जीतकर कर्पूरी ठाकुर जी पहली बार विधायक बने और आजीवन विधानसभा के सदस्य रहे। 1967 में वह शिक्षा मंत्री और उपमुख्यमंत्री बने। दो बार बिहार के मुख्य मंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर जी जब 1977 में लोकसभा का चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे, तब उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि- ‘संसद के विशेषाधिकार कायम रहें, लेकिन जनता के अधिकार भी, यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे, तो एक न एक दिन जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी।’ कर्पूरी ठाकुर जी देशी माटी और देशी मिजाज के जनप्रिय नेता थे, जिन्हें न पद का लोभ था, न उसकी लालसा और जब कुर्सी मिली भी तो उन्होंने कभी उसका न तो धौंस दिखाया और न ही तामझाम। मुख्य मंत्री रहते हुए सार्वजनिक जीवन में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब उन्होंने कई मौकों पर सादगी की अनूठी मिसाल पेश की। भारतीय राजनीति में ऐसे विलक्षण राजनेता कम ही देखने को मिलते हैं। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब उनका निधन हुआ, तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक, न तो पटना में और न ही उनके पैतृक गांव में उनके नाम था। मुख्य मंत्री होने के बाद भी वह अपने लिए एक इंच जमीन नहीं जोड़ पाए। प्रधानमंत्री रहते समय चौधरी चरण सिंह जी जब एक बार जब उनके घर गए तो ‘जननायक’ जी के दरवाजे से निकलते समय उनके सिर में चोट लग गई, तब उन्होंने अपने खांटी अंदाज में कहा, “कर्पूरी, इसको जरा ऊंचा करवाओ,” तो कर्पूरी ठाकुर जी बोले, ” जब तक बिहार के गरीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा?”
दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप-मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उनके पास अपनी गाड़ी तक भी नहीं थी। वह रिक्शे से चलते थे। उनके मुताबिक, कार खरीदने और पेट्रोल खर्च वहन करने लायक उनकी आय नहीं थी। लेखक जयंत जिज्ञासु जी अपने एक लेख में कर्पूरी ठाकुर जी की सादगी के बारे में लिखते हैं कि-“जब 1952 में कर्पूरी ठाकुर जी पहली बार विधायक बने, उन्हीं दिनों ऑस्ट्रिया जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में उनका चयन हुआ था, लेकिन उनके पास पहनने को कोट नहीं था। दोस्त से कोट मांगा, तो वह भी फटा हुआ ​मिला। कर्पूरी जी वही कोट पहनकर चले गए। वहां यूगोस्लाविया के प्रमुख मार्शल टीटो ने जब उनका फटा कोट देखा तो वहां उन्हें नया ​कोट गिफ्ट किया।” आज तो आदमी की पहचान ही उसके कपड़ों से की जाने लगी है।
वर्ष 1977 के एक किस्से के बारे में सुरेंद्र किशोर जी लिखते हैं कि-पटना के कदम कुआं स्थित चरखा समिति भवन में जय प्रकाश नारायण जी का जन्मदिन मनाया जा रहा था, वहां पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी, नानाजी देशमुख जी समेत देशभर के दिग्गज नेता एकत्र थे, वहां मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर जी फटा कुर्ता, टूटी चप्पल के साथ पहुंचे, तो एक नेता ने चुटकी लेते हुए टिप्पणी की, कि ‘किसी मुख्य मंत्री के ठीक ढंग से गुजारे के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए?’
सब हंसने लगे। चंद्रशेखर जी अपनी सीट से उठे और अपने कुर्ते को सामने की ओर फैला कर कहने लगे, कर्पूरी जी के ‘कुर्ता फंड’ में दान कीजिए। सैकड़ों रुपये जमा हुए। तब कर्पूरी जी को थमाकर कहा कि इससे अपना कुर्ता-धोती ही खरीदिएगा, तब कर्पूरी जी ने कहा, “इसे मैं मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा दूंगा।” शायद इसीलिए कर्पूरी ठाकुर जी को सिर्फ नायक नहीं अपितु “जननायक” कहा गया। उनका मानना था कि संसदीय परंपरा और संसदीय जीवन राजनीति की पूंजी होती है, जिसे हर हाल में निभाया जाना चाहिए। उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा गरीब, पिछड़े और बहुजन समाज के शोषित-पीड़ित- प्रताड़ित लोग रहे हैं। उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए कर्पूरी ठाकुर जी ने सदैव लोकतांत्रिक व संवैधानिक प्रणाली का ही सहारा लिया। मसलन, उन्होंने प्रश्न काल, ध्यानाकर्षण, शून्य काल, कार्य स्थगन, निवेदन, वाद-विवाद, संकल्प आदि सभी संसदीय विधानों-प्रावधानों का इस्तेमाल जनहित में किया। उनका मानना था कि लोकतंत्र में ही जनता-जनार्दन से जुड़े अहम मुद्दों पर ही फैसले लिए जाएं।
कर्पूरी ठाकुर जी जिस दौर में पैदा हुए और अस्पृश्यता, विषमता और अन्याय के खिलाफ जो राजनीतिक-सामाजिक संग्राम उनके द्वारा छेड़े गये थे, वह कई प्रकार के जोखिमों युक्त थे। दक्षिण भारत में द्रविड़ आंदोलन ने पिछड़ों, वंचितों, लाचार और विवश वर्गों को जो सम्मान और साझेदारी पेरियार साहब के नेतृत्व में हासिल हुई, उत्तर भारत के बिहार में पिछड़ों के सामाजिक सशक्तीकरण के कर्णधार निःसंदेह कर्पूरी ठाकुर जी ही हैं।
आधे से अधिक आबादी वाले वंचित समाज की हिस्सेदारी सबसे पहले बिहार में सुनिश्चित हुई। कर्पूरी जी ने विधानसभा में पिछड़ों के आरक्षण की संरचना तैयार कर लागू कराने के प्रस्ताव को साकार किया और इस क्रम में 1978 का वर्ष पिछड़ी जातियों के इतिहास की एक इबारत लिख गया।
राजनीतिक जानकारों का आकलन है कि जिस मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू कराने के लिए कर्पूरी ठाकुर जी जीवन भर संघर्षरत रहे, उनके क्रियान्वयन की तिथि उनकी मृत्यु के दो वर्ष बाद ही तय हो गयी।
आज किसी दल, व्यक्ति या समूह में इतना दम-खम नहीं, जो ‘कर्पूरी फॉर्मूला’ को नजरअंदाज कर सके। उनके दोस्त और दुश्मन दोनों को ही उनके आश्चर्यजनक राजनीतिक फ़ैसलों के बारे में सदैव अनिश्चितता बनी रहती थी। जननायक कर्पूरी ठाकुर जी का निधन 64 वर्ष की आयु में दिनांक 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हो गया था। उनकी मृत्यु के लगभग 35 वर्ष बाद भारत सरकार ने उन्हें (मरणोपरांत) भारत का सर्वोच्च सम्मान- “भारत रत्न” प्रदान किया है।
आज सामाजिक परिवर्तन के नायकों के चित्र जब-जब किसी सभागार में स्थापित होते हैं, तो तथागत बुद्ध, महामना फूले, बाबा साहब, पेरियार रामासामी, ललई सिंह यादव, बीपी मंडल, कांशीराम साहब आदि बहुजन महापुरूषों के साथ-साथ जननायक कर्पूरी ठाकुर जी भी उसमें सामाजिक न्याय का झंडा बुलंद कर रहे होते हैं। सामाजिक न्याय, सादगी व ईमानदारी की प्रतिमूर्ति, दूरदर्शी, सहज-सरल राजनीतिज्ञ, ओजस्वी वक्ता, बिहार राज्य के लोकप्रिय पूर्व मुख्य मंत्री, जननायक, भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर जी को कृतज्ञतापूर्ण नमन। 🙏