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बिहार के ‘लेनिन’ बाबू जगदेव प्रसाद जी

बिहार के ‘लेनिन’ बाबू जगदेव प्रसाद जी
(02 फ़रवरी, 1922 – 05 सितंबर, 1974)
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“दस का शासन नब्बे पर,
नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है। धन-धरती और राजपाट में, नब्बे भाग हमारा है।”
उत्तर भारत में सामाजिक क्रान्ति’ के जनक, अर्जक संस्कृति और साहित्य के प्रबल पैरोकार, मंडल कमीशन के प्रेरणास्रोत, बहुजनों-पिछङों के महानायक भारत के लेनिन बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा जी बहुजनों में एक ऐसी नींव डाल गये हैं,  जिस पर इस देश के बहुजन लगातार सामाजिक-आर्थिक-राजनीति और सांस्कृतिक पथ पर गतिमान हैं।
बाबू जगदेव प्रसाद जी का जन्म 02 फरवरी, 1922 को तथागत बुद्ध के ज्ञानस्थल बोध गया के समीप कुर्था प्रखंड के कुरहारी ग्राम में अत्यंत निर्धन बहुजन परिवार में हुआ था। आपके पिता प्रयाग नारायण कुशवाहा जी पास के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे तथा माता रासकली जी बिना पढ़ी-लिखी महिला थीं। पिता के मार्गदर्शन में जगदेव प्रसाद जी ने मिडिल की परीक्षा पासकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने की इच्छा से हाईस्कूल के लिए जहानाबाद चले गए।  निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से होने के कारण बाबू जगदेव प्रसाद जी की प्रवृत्ति शुरू से ही संघर्षशील तथा जुझारू रही। वह बचपन से ही ‘विद्रोही स्वभाव’ के थे। जगदेव प्रसाद जी जब किशोरावस्था में अच्छे कपडे पहनकर स्कूल जाते तो गैर-पिछङे छात्र उनका उपहास उड़ाते। एक दिन गुस्से में आकर उन्होंने उनकी पिटाई कर दी और उनकी आँखों में धूल डाल दी,  इसके लिए उनके पिताजी को जुर्माना भरना पड़ा और माफ़ी भी मांगनी पडी और उनके साथ स्कूल में बदसूलकी भी हुई। एक दिन बिना किसी गलती के एक शिक्षक ने जगदेव बाबू को चांटा मार दिया, कुछ दिनों बाद वही शिक्षक कक्षा में पढ़ाते-पढाते खर्रांटे भरने लगे, इस बार जगदेव जी ने उनके गाल पर एक जोरदार चांटा मारा। शिक्षक ने प्रधानाचार्य से शिकायत की। जगदेव बाबू ने निडर भाव से कहा, ‘गलती के लिए सबको बराबर सजा मिलनी चाहिए, चाहे वह छात्र हो या शिक्षक’। उस समय उस इलाके में किसानों की जमीन की फसल का पांच कट्ठा जमींदारों के हाथियों को चारा देने की एक प्रथा सी बन गयी थी। गरीब तथा शोषित वर्ग का किसान जमींदार की इस जबरदस्ती का विरोध नहीं कर पाता था। जगदेव बाबू ने इसका विरोध करने को ठाना। जगदेव बाबू ने अपने साथियों के साथ मिलकर रणनीति बनायी और जब महावत हाथी को लेकर फसल चराने आया, तो पहले उसे मना किया, पर जब महावत नहीं माना तब जगदेव बाबू ने अपने साथियों के साथ महावत की पिटाई कर दी और आगे से न आने की चेतावनी भी दी। इस घटना के बाद से उस इलाके में यह “पंचकठिया प्रथा” बंद हो गयी। जब वह शिक्षा हेतु घर से बाहर रह रहे थे, उनके पिता अस्वस्थ रहने लगे। जगदेव बाबू की माँ धार्मिक स्वभाव की थीं, अपने पति की सेहत के लिए उन्होंने खूब पूजा, अर्चना की तथा मन्नते मांगी, इन सबके बावजूद उनके पिता का देहावसान हो गया। यहीं से जगदेव बाबू के मन में अंधविश्वास के प्रति विद्रोही भावना पैदा हो गयी और उन्होंने घर के सारे देवी-देवताओं की तस्वीरों को उठाकर पिताजी की अर्थी पर हमेशा के लिए डाल दिया। इस तरह उनके मन में आडम्बरों के लिए जो विक्षोभ उत्पन्न हुआ वह अंत समय तक रहा, उन्होंने कर्मकांडवाद का प्रतिकार मानववाद के सिद्धांत के जरिये किया। जगदेव बाबू ने तमाम घरेलू परेशानियों के बीच उच्च शिक्षा हासिल की। पटना विश्वविद्यालय से स्नातक तथा परास्नातक उत्तीर्ण हुए। वही उनका परिचय चंद्रदेव प्रसाद वर्मा जी से हुआ, चंद्रदेव वर्मा जी ने जगदेव बाबू को विभिन्न विचारकों को पढने, जानने-सुनने के लिए प्रेरित किया, अब जगदेव बाबू ने सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भी भाग लेना शुरू कर दिया और वह राजनीति की तरफ प्रेरित हुए। इसी बीच वह ‘जनता’ पत्र का संपादन भी किया। एक संजीदा पत्रकार की हैसियत से उन्होंने दलितों-पिछड़ों-शोषितों की समस्याओं के बारे में खूब लिखा तथा उनके समाधान के बारे में अपनी कलम चलायी। वर्ष 1955 में वह हैदराबाद जाकर अंग्रेजी साप्ताहिक ‘सिटीजन’ तथा हिन्दी साप्ताहिक ‘उदय’ का संपादन भी आरभ किया। उनके क्रांतिकारी तथा ओजस्वी विचारों से पत्र-पत्रिकाओं के पाठकों की संख्या लाखों में पहुँच गयी। इस बीच उन्हें धमकियों का भी सामना करना पड़ा और प्रकाशक से मन-मुटाव भी हुआ, लेकिन जगदेव बाबू ने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया और वह संपादक पद से त्याग-पत्र देकर पटना वापस लौट आये।
बिहार में उस समय समाजवादी आन्दोलन की बयार थी। बिहार में जगदेव बाबू तथा जननायक कर्पूरी ठाकुर जी की सूझ-बूझ से कई सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन हुए। बिहार में राजनीति को जनवादी बनाने के लिए उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता महसूस की। वह मानववादी महामना रामस्वरूप वर्मा जी द्वारा स्थापित ‘अर्जक संघ’ (स्थापना 01 जून, 1968) में शामिल हुए। जगदेव बाबू ने कहा था कि अर्जक संघ के सिद्धांतो के द्वारा ही जातिवाद और कर्मकांडवाद को खत्म किया जा सकता है और सांस्कृतिक परिवर्तन कर मानववाद स्थापित किया जा सकता है। उन्होंने आचार, विचार, व्यवहार और संस्कार को अर्जक विधि से मनाने पर बल दिया। वह नए-नए तथा जनवादी नारे गढ़ने में निपुण थे। सभाओं में जगदेव बाबू के भाषण बहुत ही प्रभावशाली होते थे, जहानाबाद की एक जनसभा में उन्होंने नारा दिया- “दस का शासन नब्बे पर,
नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है। धन-धरती और राजपाट में, नब्बे भाग हमारा है।”
भारत के लेनिन बाबू जगदेव प्रसाद जी कहते थे कि- “पहली पीड़ी के लोग मारे जाएंगे, दूसरी पीड़ी के जेल जायेंगे, तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे।” जगदेव बाबू ने अपने भाषणों से बहुजन समाज में नवचेतना का संचार किया, उन्होंने राजनीतिक विचारक टी. एच. ग्रीन के इस कथन को चरितार्थ कर दिखाया कि चेतना से स्वतंत्रता का उदय होता है, स्वतंत्रता मिलने पर अधिकार की मांग उठती है और राज्य को मजबूर किया जाता है कि वह उचित अधिकारों को प्रदान करे।
अब बिहार की जनता इन्हें ‘बिहार के लेनिन’  के नाम से जानने लगी थी। बाबू जगदेव प्रसाद एक ऐसा नाम था जिसने 60 और 70 के दशक में पूरे बिहार को हिला कर रख दिया था, जिनका ज़मीनी नारा था- बहुजनों पर अल्पजनों का शासन नहीं चलेगा।
इसी समय बिहार में तत्कालीन सरकार के खिलाफ आन्दोलन शुरू हुआ और राजनीति की एक नयी दिशा-दशा का सूत्रपात हुआ, लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व गैर पिछङों के हाथ में था, जगदेव बाबू ने आन्दोलन के इस स्वरुप को स्वीकृति नहीं दी। इससे दो कदम आगे बढ़कर वह इसे जन-आन्दोलन का रूप देने के लिए मई 1974 को 6 सूत्री मांगो को लेकर पूरे बिहार में जन सभाएं की तथा तत्कालीन सरकार पर भी दबाव डाला, किन्तु इसका कोई असर नहीं पड़ा, जिससे फलस्वरूप 05 सितम्बर, 1974 से राज्य-व्यापी सत्याग्रह शुरू करने की योजना बनी। 05 सितम्बर 1974 को जगदेव बाबू हजारों की संख्या में बहुजन समाज का नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ने लगे। कुर्था में सत्याग्रहियों को रोका गया, तो जगदेव बाबू ने इसका प्रतिवाद किया और जगदेव बाबू चट्टान की तरह जमें रहे तथा अपना भाषण जारी रखा, पर वह विरोधियों के पूर्व-नियोजित जाल में फंस गए थे। इसी बीच उनके ऊपर गोली चला दी गई। गोली सीधे उनके गर्दन में जा लगी और वह गिर पड़े। भारी जन-दबाव के बाद उनका शव 06 सितम्बर,1974 को पटना लाया गया, उनकी अंतिम शव-यात्रा में देश के कोने-कोने से लाखो-लाखों लोग पहुंचे थे। आज बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा जी का बहुत कम साहित्य लिखा मिलता है। उनके संपादन में निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं को सहेजा नहीं गया, जिससे जगदेव बाबू का व्यापक व्यक्तित्व जनमानसस के सामने नहीं आ पाया। बहुजनों की आवाज, समाजवाद की जीती-जागती मिसाल, बिहार की राजनीतिक चेतना व सांस्कृतिक बदलाव के वाहक, शोषितों के मसीहा, स्वर्ग-नर्क, जातीय आडम्बर के प्रबल विरोधी, क्रांतिकारी राजनेता, सामाजिक न्याय के पक्षधर, बिहार के लेनिन, बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा जी को कृतज्ञतापूर्ण नमन🙏