संत गाडगे बाबा
(23 फरवरी, 1876 – 20 दिसंबर, 1956)
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बीसवीं सदी के समाज-सुधार आन्दोलन में जिन महान बहुजन महापुरूषों का योगदान रहा है, उनमें से एक महान समाज सुधारक महापुरूष का नाम बाबा गाडगे जी का है। यदि ध्यान से देखा और समझा जाए, तो बाबा गाडगे तथागत बुद्ध, संत कबीर और संत रविदास जी की परंपरा एवं विचारधारा के ही वाहक नजर आते हैं। उनकी शिक्षाओं को देखकर ऐसा लगता है कि वह बुद्ध, कबीर और रविदास जी से बहुत अधिक प्रभावित थे। यह संयोग ही है कि संत रविदास जी और गाडगे बाबा की जयंती एक ही महीने फरवरी में पड़ती है। संत गाडगे बाबा का जन्म 23 फरवरी, 1876 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले की तहसील अंजन गांव सुरजी के शेगाँव नामक गाँव में बहुजन समाज(धोबी) में हुआ था। उनकी माताजी का नाम सखूबाई और पिताजी का नाम झिंगराजी था। बाबा गाडगे जी का पूरा नाम देवीदास डेबूजी झिंगराजी जाड़ोकर था। घर में उनके माता-पिता उन्हें प्यार से ‘डेबू जी’ कहते थे। डेबू जी सभी साधनों का त्याग कर हमेशा अपने साथ मिट्टी के मटके जैसा एक बर्तन रखते थे। इसी बर्तन में वह बुद्ध की भांति खाना भी खाते और पानी भी पीते थे। महाराष्ट्र में मटके के टुकड़े को गाडगा कहते हैं। इसीलिए लोग उन्हें गाडगे महाराज और बाद में गाडगे बाबा कहने लगे। कालान्तर में वह अपने सत्कार्यों से संत गाडगे के नाम से प्रसिद्ध हो गये। गाडगे बाबा बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर जी के समकालीन थे तथा वह बाबा साहब से आयु में पन्द्रह साल बड़े थे। वैसे तो गाडगे बाबा बहुत से राजनीतिज्ञों से मिलते-जुलते रहते थे। लेकिन वह बाबा साहब के कार्यों से अत्यधिक प्रभावित थे। इसका कारण था कि जो समाज सुधार सम्बन्धी कार्य वह अपने कीर्तन के माध्यम से लोगों को उपदेश देकर कर रहे थे, वही कार्य बाबा साहब राजनीति के माध्यम से उस समय कर रहे थे। गाडगे बाबा के कार्यों का ही प्रभाव था कि जहाँ बाबा साहब तथाकथित साधु-संन्यासियों से दूर ही रहा करते थे, वहीं वह गाडगे बाबा का बहुत सम्मान भी करते थे। वह गाडगे बाबा से समय-समय पर मिलते रहते थे तथा समाज-सुधार सम्बन्धी मुद्दों पर उनसे सलाह-मशविरा भी करते थे।
गाडगे बाबा तथागत बुद्ध, संत कबीर और संत रविदास जी की तरह ही आडम्बर, पाखंडवाद, अंधविश्वास और जातिवाद के विरोधी थे। वह हमेशा लोगों से यही कहते थे कि सभी मानव एक समान हैं, इसलिए एक दूसरे के साथ भाईचारे एवं प्रेम का व्यवहार करिए। वह स्वच्छता पर विशेष जोर देते थे। वह हमेशा अपने साथ एक झाड़ू रखते थे, जो स्वच्छता का प्रतीक था। वह कहते थे कि ‘‘सुगंध देने वाले फूलों को पात्र में रखकर मूर्तियों पर अर्पित करने के बजाय चारों ओर बसे हुए लोगों की सेवा के लिए अपना खून खपाओ। भूखे लोगों को रोटी खिलाई, तो ही तुम्हारा जन्म सार्थक होगा। पूजा के उन फूलों से तो मेरा झाड़ू ही श्रेष्ठ है।’’ संत गाडगे बाबा आजीवन सामाजिक अन्याय के खिलाफ संघर्षरत रहे तथा समाज को जागरूक करते रहे। उन्होंने सामाजिक कार्य और जनसेवा को ही अपना कर्म बना लिया था। वह व्यर्थ के कर्मकांडों, आडम्बरों व खोखली परम्पराओं से दूर रहे। जाति प्रथा और अस्पृश्यता को बाबा गाडगे सबसे घृणित और अधर्म कहते थे। उनका मानना था कि ऐसी धारणाएँ धर्म में कुछ लोगों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए जोड़ी हैं और इन्हीं मिथ्या धारणाओं के बल पर जनता का शोषण करके वह अपना पेट भर रहे हैं, इसीलिए वह लोगों को अंधभक्ति व कुप्रथाओं से बचने की सलाह देते थे।
अन्य संतों की भाँति गाडगे बाबा को भी औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का अवसर नहीं मिला था। उन्होंने स्वाध्याय के बल पर ही थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीख लिया था। शायद यह बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर जी की संगति का ही प्रभाव था कि गाडगे बाबा शिक्षा पर बहुत अधिक जोर देते थे। उन्होंने शिक्षा के महत्व को इस हद तक प्रतिपादित किया कि यदि खाने की थाली भी बेचनी पड़े, तो उसे बेचकर भी शिक्षा ग्रहण करो। हाथ पर रोटी लेकर खाना खा सकते हो पर विद्या के बिना जीवन अधूरा है। वह अपने प्रवचनों में शिक्षा पर बोलते समय बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर जी को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करते हुए कहते थे कि ‘‘देखा बाबा साहब अंबेडकर अपनी महत्वाकांक्षा से कितना पढ़े, शिक्षा कोई एक ही वर्ग की ठेकेदारी नहीं है, एक गरीब का बच्चा भी अच्छी शिक्षा लेकर ढेर सारी डिग्रियाँ हासिल कर सकता है।’’ बाबा गाडगे ने अपने समाज में शिक्षा का प्रकाश फैलाने के लिए 31 शिक्षण संस्थाएं तथा एक सौ से अधिक अन्य संस्थाओं की स्थापना की। बाद में सरकार ने इन संस्थाओं के रख-रखाव के लिए एक ट्रस्ट भी बनाया। गाडगे बाबा बाबा साहब से किस हद तक प्रभावित थे, इसके बारे में चर्चा करते हुए डा. एम.एल. शहारे ने अपनी आत्मकथा ‘यादों के झरोखे’ में लिखते हैं कि ‘‘बाबा साहब आम्बेडकर से गाडगे बाबा कई बार मिल चुके थे। वह बाबा साहब के व्यक्तित्त्व एवं कृतित्व से बहुत प्रभावित हो चुके थे। बाबा साहब और संत गाडगे बाबा ने एक साथ तस्वीर खिंचवायी थी। आज भी कई घरों में ऐसी तस्वीरें दिखायी देती हैं। संत गाडगे ने बाबा साहब द्वारा स्थापित “पीपुल्स एजुकेशन सोसाएटी” को पंढरपुर की अपनी धर्मशाला छात्रावास हेतु दान की थी। संत गाडगे महाराज की कीर्तन शैली अपने आप में बेमिसाल थी। वह संतों के वचन सुनाया करते थे। वह विशेष रूप से कबीर, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर आदि के काव्यांश जनता को सुनाते थे। हिंसाबंदी, शराबबंदी, अस्पृश्यता निवारण, पशुबलिप्रथा आदि उनके कीर्तन के विषय हुआ करते थे।’’ गाडगे जी बाबा डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर जी से अत्यधिक प्रभावित थे । इसका कारण यह था कि वह अपने कीर्तन के माध्यम से लोगों को उपदेश देकर जो समाज सुधार कार्य कर रहे थे, बाबा साहब राजनीति के माध्यम से वही काम कर रहे थे। वह बाबा साहब के व्यक्तित्व और कार्य से हमेशा प्रभावित रहते थे। शिक्षा के महत्व को फुले-दंपत्ति, साहू जी महाराज और बाबा साहब की तरह वह भी समझते थे। बाबा साहब ने संत गाडगे बाबा को ज्योतिबा राव फुले जी के बाद लोगों का सबसे बड़ा सेवक बताया था । जनसेवा और समाजोत्थान के कार्यों को करते हुए बाबा साहब के परिनिर्वाण के मात्र 14 दिनों बाद ही बाबा साहब के निधन से दुखी होकर गाडगे बाबा ने भी उनकी याद में 20 दिसम्बर,1956 को हमेशा के लिए अपनी आँखें बंद कर ली थीं। कहा जाता है कि बाबा साहब के परिनिर्वाण की खबर सुनकर गाडगे बाबा स्तब्ध और दुखी मन से बोले कि जब हमारा सेनापति ही यहां नहीं रहा, तो अब मैं यहां रहकर क्या करूंगा। उनके परिनिर्वाण पर पूरे देश में पिछङों के बीच शोक की लहर दौड़ गई थी। बहुजन समाज ने दिसंबर महीने में कुछ ही दिनों के भीतर अपने दो अमूल्य रत्न(बाबा साहब-06 दिसम्बर, 1956 एवं संत गाडगे बाबा-20 दिसम्बर, 1956) खो दिए थे। उनके चाहने वाले हजारों अनुयायियों ने उन्हें अपनी आदरांजलि अर्पित की और उनकी अन्तिम यात्रा में सम्मिलित हुए। आज बाबा गाडगे का शरीर हमारे बीच में नहीं है, लेकिन उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं, जिससे हमें प्रेरणा लेने की जरूरत है। बाबा गाडगे जी का जीवन और कार्य केवल महाराष्ट्र के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
गाडगे बाबा की मृत्यु के बाद 01 मई, 1983 को महाराष्ट्र सरकार ने नागपुर विश्वविद्यालय को विभाजित कर ‘संत गाडगे बाबा’ अमरावती विश्वविद्यालय, अमरावती, महाराष्ट्र की स्थापना की। उनके 42वें स्मृति दिवस 20 दिसम्बर, 1998 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया। वर्ष 2001 में महाराष्ट्र सरकार ने उनकी स्मृति में “संत गाडगे बाबा ग्राम स्वच्छता अभियान” शुरू किया। वास्तव में गाडगे बाबा एक महापुरूष ही नहीं, बल्कि अपने आप में एक संस्था भी थे। वह एक महान संत ही नहीं, बल्कि एक महान समाज सुधारक भी थे। उनके समाज-सुधार सम्बन्धी कार्यों को देखते हुए ही बाबा साहब ने उन्हें ज्योतिबा फुले जी के बाद सबसे बड़ा त्यागी, जनसेवक कहा था, जो उचित ही था। ऐसे बहुजन महापुरुष को कृतज्ञतापूर्ण नमन 🙏