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जननायक बिरसा मुंडा

धरती आबा-जननायक बिरसा मुंडा
(15 नवंबर, 1875 – 09 जून, 1900)
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दिनांक 15 नवंबर को “अबुआ दिसुम-अबुआ राज” (हमारे देश में हमारा राज) के प्रणेता जननायक बिरसा मुंडा जी, जिन्हें “धरती आबा” के नाम से भी जाना जाता है, का जन्म हुआ था। भारत में ज़मींदारी व्यवस्था लागू कर मूलनिवासियों के वह गांव, जहां आदिवासी कहे जाने वाले भारत के मूलनिवासी सामूहिक खेती किया करते थे, ज़मींदारों, दलालों में बांटकर, राजस्व की नयी व्यवस्था लागू की गयी, इसके विरुद्ध बड़े पैमाने पर लोग आंदोलित हुए और उस अव्यवस्था के ख़िलाफ़ उस समय विद्रोह शुरू हो गये थे। बिरसा मुंडा जी को उनके पिता ने मिशनरी स्कूल में भर्ती किया था, पर आदिवासी समुदाय के बारे में शिक्षक की टिप्पणी के विरोध में सवाल उठाने पर उन्हें स्कूल से बाहर निकाल दिया गया था। बिरसा ने कुछ ही दिनों में यह कहकर कि ‘साहेब-साहेब एक टोपी है’ स्कूल से नाता तोड़ लिया। वर्ष 1890 के आसपास जो मूल निवासी किसी महामारी को दैवीय प्रकोप मानते थे, उनको वह महामारी से बचने के उपाय समझाते। मुंडा आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने, बाघ के खाए जाने को ऊपर वाले की मर्ज़ी मानते, बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है। बिरसा इन सबके अब “धरती आबा” यानी धरती पिता हो गए थे। धीरे-धीरे बिरसा का ध्यान मुंडा समुदाय की ग़रीबी की ओर गया। आज की तरह ही आदिवासियों का जीवन तब भी अत्यंत अभावों से भरा हुआ था। न खाने को भात था, न पहनने को कपड़े। एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ उनके जंगल अनवरत जबरन छीने जा रहे थे। जो जंगल के मूलतः दावेदार थे, वही जंगलों से बेदख़ल किए जा रहे थे, यह देख बिरसा ने हथियार उठा लिए और फिर शुरू हुआ-“उलगुलान”
इतिहासकार प्रायः उलगुलान का अर्थ विद्रोह से लगाते हैं, किंतु वास्तविक रूप में यह बाहरियों द्वारा जल, जंगल और जमीन पर कब्जे के विरोध में छेड़ा गया एक युद्ध था। 05 जनवरी, 1900 तक पूरे मुंडा अंचल में “उलगुलान” की चिंगारियां फैल गयी थीं। 09 जनवरी, 1900 का दिन मुंडा इतिहास में तब अमर हो गया, जब डोम्बारी बुरू पहा‍डी पर अंग्रेजों से लडते हुए सैंकड़ो मुंडाओं ने अपनी शहादत दी थी। कई मुंडाओं को गिरफ्तार किया गया, इनमें से 02 को फांसी, 40 को आजीवन कारावास, 06 को चौदह वर्ष की सजा, 03 को चार से छह बरस और 15 अन्य को तीन बरस की जेल हुई। अंग्रेजों और जमींदारों को लगा कि उलगुलान अब समाप्त हो गया है। मगर उलगुलान की अंतिम और निर्णायक लड़ाई जनवरी, 1900 में ही रांची के पास डोम्बारी पहाड़ी पर हुई थी। हजारों की संख्या में आदिवासी बिरसा आबा के नेतृत्व में लड़े। संख्या और संसाधन सीमित होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया। रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था, जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी। बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई वर्ष 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर पुनः हुई। हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े, पर तीर-कमान और भाले कब तक बंदूकों और तोपों का सामना करते। अंततः भारत के यह मूल लोग बेरहमी से मार दिए गए। 25 जनवरी, 1900 में स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे। 03 फरवरी, 1900 को सेंतरा के पश्चिम जंगल के काफी भीतर बिरसा को सोते समय में पकड़ लिया गया। गिरफ्तारी की सूचना फैलने के पहले ही उन्हें खूंटी के रास्ते रांची लाया गया। उनके खिलाफ गोपनीय ढंग से मुकदमे की कार्रवाई की गयी और उन पर सरकार से बगावत करने, आतंक व हिंसा फैलाने के आरोप लगाये गये। मुकदमे में उनकी ओर से किसी प्रतिनिधि को हाजिर नहीं होने दिया गया। जेल में उनको अनेक प्रकार की यातनाएं दी गयीं। 20 मई को उनका स्वास्थ्य खराब होने की सूचना बाहर आयी और 01 जून को उनको हैजा होने की सूचना फैली। अंततः 09 जून की सुबह जेल में ही उनकी मृत्यु हुई। वास्तव में यह मृत्यु बिरसा मुंडा जी की नहीं, बल्कि आदिवासी मुंडाओं के ‘भगवान’ की थी। बिरसा की शहादत के बाद उलगुलान समाप्त होने के साथ ही हुकूमत को चौकन्ना भी कर गया। उसे यह एहसास हो गया कि झारखंड क्षेत्र में सांस्कृतिक स्तर पर आदिवासी चेतना का पुनर्जागरण कभी भी सिर उठा सकता है, इसलिए उसने भूमि संबंधी समस्याओं के समाधन के प्रयास शुरू कर दिये। उलगुलान के गढ़ माने जाने वाले तमाम क्षेत्रों में भूमि बंदोबस्ती का कार्य शुरू हुआ। काश्तकारी संशोधान अधिनियम के जरिये पहली बार खुंटकट्टी व्यवस्था को कानूनी मान्यता दी गयी। भूमि अधिकार के अभिलेख तैयार कर बंदोबस्त की वैधनिक प्रक्रिया चलाने और भू-स्वामित्व के अंतरण की व्यवस्था को कानूनी रूप देने के लिए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 बनाया गया। इसमें उन तमाम पुराने कानूनों का समावेश किया गया, जो पिछले 25–30 सालों में भूमि असंतोष पर काबू पाने के लिए समय-समय पर लागू किये गये थे। उनमें 1879 का छोटानागपुर जमींदार और रैयत कार्यवाही अधिनियम, और 1891 का लगान रूपांतरण अधिनियम शामिल हैं। नये और समग्र अधिनियम में खुंटकट्टीदार और मुंडा खुंटकट्टीदार काश्तों को सर्वमान्य कानूनी रूप देने का प्रयास किया गया। कानून में यह आम व्यवस्था की गयी कि खुंटकट्टी गांव-परिवार में परंपरागत भूमि अधिकार न छीने। किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा जमीन हड़पे जाने की आशंका को खत्म करने के लिए डिप्टी कमिश्नर को विशेष अधिकार से लैस किया गया। कानून के तहत ऐसे बाहरी व्यक्ति को पहले उस क्षेत्र से बाहर निकालने का प्रावधान किया गया। मुंडा-मुंडा के बीच भूमि अंतरण की छूट और मुंडा व बाहरी व्यक्ति के बीच भूमि हस्तांतरण पर प्रतिबंध के लिए कई नियम बने। हुकूमत ने उस कानून को अमलीजामा पहनाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर भी कई तब्दीलियां कीं। 1905 में खूंटी अनुमंडल बना और 1908 में गुमला अनुमंडल बना ताकि न्याय के लिए आदिवासियों को रांची तक की लम्बी यात्रा न करनी पड़े। इस बहाने क्षेत्र में स्वशासन की जनजातीय प्रणाली को ध्वस्त कर ब्रिटिश हुकूमत ने प्रशासन का अपना तंत्र कायम किया। मगर इतिहास गवाह है कि बिरसा की शहादत के बाद झारखंड क्षेत्र में जितने भी विद्रोह और आंदोलन हुए, उन सबके लिए बिरसा जी का आंदोलन सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पैमाना बना। जून का महीना हम बहुजनों के लिए विशेष महत्व रखता है। जून के महीने की 09 तारीख को हम भारत के लोग कृतज्ञतापूर्वक जननायक बिरसा मुंडा जी की शहादत को याद करते हैं और 30 जून हूल विद्रोह की वर्षगांठ का दिन है।
धरती आबा जननायक “बिरसा मुंडा जी” को कृतज्ञतापूर्ण नमन 🙏