राष्ट्र संत नारायणा गुरु
(20 अगस्त,1856 – 20 सितम्बर,1928)
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आज से लगभग सौ साल पहले ट्रावनकोर और कोचीन (वर्तमान में केरल राज्य) एक ऐसा क्षेत्र था, जहां सामाजिक रूप से पिछङी और अछूत समझी जाने वाली जातियों के लिये मंदिर, विद्यालय और सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश पूर्णतः वर्जित था। कुंओं का इस्तेमाल वह कर नहीं सकते थे। इन जाति के पुरुषों और महिलाओं के लिये कमर से ऊपर कपड़े पहनना गुनाह था। गहने पहनने का तो सवाल ही नहीं था। इन्हें अछूत तो समझा जाता ही था, उनकी परछाइयों से भी लोग दूर रहते थे। तथाकथित ऊंची जाति के लोगों से उन्हें कितनी दूर खड़े होना है, वह दूरी भी जातियों के आधार पर निर्धारित थी। यह दूरी भी 5 से 30 फुट तक थी। कुछ जातियों के लोगों को तो देख भर लेने से छूत लग जाती थी। उन्हें चलते समय दूर से ही अपने आने की स्वयं सूचना देनी पड़ती थी कि –“ मेरे मालिकों, मै इधर ही आ रहा हूं, कृपया अपनी नजरें घुमा लें।” इन लोगों को अपने बच्चों के सुन्दर और सार्थक नाम भी रखने की मनाही थी और नाम ऐसे होते थे जिनसे दासता और हीनता का बोध हो। ऐसे किसी भी सामाजिक नियम का उल्लंघन करने पर सजा निर्धारित थी, भले ही वह उल्लंघन गलती से ही हो गया हो। इन सारी अमानवीयता और अत्याचारों के बीच ही एक महान बहुजन महापुरुष ने वह कर दिखाया, जिसने पूरे समाज को ही बदल कर रख दिया। इस स्थिति के खिलाफ संघर्ष करने वाले और बहुजनों को इस गुलामी से बाहर निकालने का सद्प्रयास करने वाले महान युग-पुरुष का नाम था “नारायणा गुरू”।
नारायणा गुरू जी का जन्म भारत के दक्षिण में स्थित केरल राज्य में दिनांक 20 अगस्त, 1856 को केरल में तिरुवनंतपुरम के पास चेमपज़ंथी (Chempazhanthy) गांव में एझावा (Ezhava) नाम की निम्न समझी जाने वाली जाति में मदन असन जी और कुट्टियम्मा जी (Kuttiyamma) के परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम “नानू” था। जिस दौर में उनका जन्म हुआ था, उस समय केरल जातिवाद और रूढ़िवाद में बुरी तरह से जकड़ा हुआ था। उन्होंने अपने दृढ़ निश्चय से समाज की सूरत ही बदल डाली और जातिवादी व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी। नारायणा गुरु जैसे महान महापुरुष को देश के कई हिस्सों के बहुजनों द्वारा ज्यादा नहीं जानना, हम सबके लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। समाज की अमानवीय दशा को देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ। उन्हें बचपन से ही एकांत पसंद था और वह हमेशा गहन चिंतन में लिप्त रहते थे। केरल में नैयर नदीं के किनारे अरुविप्पुरम के घने जंगलों की एक गुफा में नारायणा गुरु एकांतवास थे। एक दिन परमेश्वरन पिल्लै नामक एक भेङ चराने वाले ने उन्हें जंगल के एकांत में ध्यान लगाए हुए देखा। उसी ने बाद में लोगों को नारायणा गुरु के बारे में बताया और वही उनका पहला शिष्य भी बना। धीरे-धीरे बोधिप्राप्त नारायणा गुरु अपनी ध्यान साधना से सिद्ध पुरुष के रूप में प्रसिद्ध हो गए। उसी दौरान नारायणा गुरु को उन विषम सामाजिक परिस्थितियों में एक ऐसा मंदिर बनाने का विचार आया, जिसमें किसी किस्म का कोई भेदभाव न हो। जाति, धर्म, महिला और पुरूष का कोई बंधन न हो और फिर उन्होंने अरुविप्पुरम में एक ऐसा ही मंदिर बनाकर पहला इतिहास रचा। उस समय अरुविप्पुरम का मंदिर इस देश का शायद पहला मंदिर था, जहां बिना किसी जातिभेद के कोई भी पूजा कर सकता था। इनके मंदिर में मूर्ति की जगह दर्पण रखे होते थे, जिसका अभिप्राय था कि इस मंदिर में आकर मानव स्वयं का निरीक्षण व आत्मपरीक्षण करे। समाज सुधारक नारायणा गुरु के इस क्रांतिकारी कदम से उस समय जाति के बंधनों में जकड़े समाज में हंगामा खड़ा हो गया और वहां के जन्मजात एकाधिकारी कर्मकांडी जातिवादियों ने इसे महापाप करार दिया। दरअसल वह एक ऐसे धम्म की खोज में थे, जहां समाज का हर व्यक्ति एक-दूसरे में समान बंधुत्व महसूस कर सके। वह एक ऐसे ‘बुद्ध’(जागा हुआ) की खोज में थे, जो सभी मनुष्यों को समान दृष्टि से देखे। वह पाखंडियों द्वारा निम्न ठहरा दी गई जातियों के लोगों को स्वाभिमान से जीते देखना चाहते थे। उसी दौर में महामना ज्योतिबा फूले जी समाज में दूसरे स्तर पर छुआछूत मिटाने व शिक्षा फैलाने की कोशिश कर रहे थे। वह एक बार नारायणा गुरु से मिले भी थे। नारायणा गुरु जी ने उन्हें आम जन की सेवा के लिए बहुत सराहा था। वह कहते थे कि- आप अपने बच्चों के लिये अपने स्कूल स्वयं बना लो और उन्हें इतनी अच्छी तरह से चलाओ कि तुम्हारे विरोधी भी तुम्हारे स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने को इच्छुक हो जाएं। उनसे लोगों ने जब कहा कि उन्हें मंदिरों में जाति के कारण प्रवेश नहीं करने दिया जाता, तब उन्होंने कहा कि ऐसे मंदिरों में तुम्हें न तो जबरदस्ती प्रवेश करने की जरूरत है और न ही प्रवेश की अनुमति के लिये गिड़गिड़ाने की आवश्यकता है। नारायणा गुरु जी ने स्वच्छता, शिक्षा, कृषि, व्यापार, हस्तशिल्प और तकनीकी प्रशिक्षण पर भी बहुत ज़ोर दिया। नारायणा गुरु जी वंचितों के मंदिर प्रवेश आंदोलन के सबसे अग्रणी पुरूष थे। वह अछूतों के प्रति सामाजिक भेदभाव के सख्त खिलाफ थे। नारायणा गुरु जी की सार्वभौमिक एकता के दर्शन का, समकालीन विश्व और समाज में मौजूद विभिन्न समुदायों के बीच घृणा, हिंसा, कट्टरता, संप्रदायवाद, जातिवाद तथा अन्य विभाजनकारी प्रवृत्तियों का मुकाबला करने के लिये विशेष महत्त्वकारी है। वर्ष 1916 में इझम (संघ की भूमि) या सीलोन की अपनी पहली यात्रा में उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि उनका धर्म वही है, जो बुद्ध का धम्म है (‘नंमूतेतुम बुद्ध मातम तन्ने…‘) उन्होंने सिंहली बौद्ध भिक्षुक अमरसिंह द्वारा लिखित ‘अमरकोश’ को उद्धत (‘दसाबलो शाधाभिजनो अद्वैतवादी…विनायक’) कर यह साबित कर दिया कि उनका दर्शन वास्तव में बुद्ध का मूल अद्वैतवाद ही है। ‘इझम’ एक प्राचीन तमिल शब्द है जिसका अर्थ होता है एक साथ गुंथी हुई कोई वस्तु जैसे संघ। इस प्रकार, इझावा से आशय है संघ के लोग। संघ या गण वह प्रजातांत्रिक संस्था थी, जिसकी शुरूआत तथागत बुद्ध ने की थी और जिसे सम्राट अशोक के साथ के धम्मावलम्बियों ने दक्षिण भारत में स्थापित किया था। मुल्लूर, करूप्पन और सहोदरन जैसे उनके प्रमुख शिष्यों और कवियों, जिन्होंनें केरल की भाषा, साहित्य और संस्कृति को नया आकार दिया, ने उन्हें ठीक ही ‘नारायण बुद्ध’ की संज्ञा दी थी। तथागत बुद्ध की ही तरह करूणा, नैतिकता और शिक्षा उनके दर्शन और आचरण के केन्द्र में थीं। उनका यह संदेश था कि लोग शिक्षा, सशक्तिकरण और संगठन के जरिए मुक्ति पाएं। यह संदेश हमें भगवान बुद्ध के त्रिसरन या त्रिरत्न – बुद्धं, धम्मं व संघं – और बाबा साहब के नारे ‘शिक्षित बनों, संगठित रहो और संघर्ष करो’ की याद दिलाता है। एक बार रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने उनसे मिलने के बाद कहा था कि-“मैंने लगभग पूरी दुनिया का भ्रमण किया है और मुझे अनेक संतों और महात्माओं से मिलने का अवसर मिला है, किन्तु मैं खुलकर स्वीकार करता हूं कि मुझे आज तक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिला जिसकी आध्यात्मिक एवं मानवीय उपलब्धियां नारायणा गुरु जी से अधिक हों, बल्कि बराबर भी हों।” नारायण गुरु जी के सद्कार्यों की सफलता से प्रभावित होकर महात्मा गांधी भी उनसे मिले थे। नारायणा गुरु जी अपनी धुन के पक्के थे। उन्होंने सदैव अपने अनुयायियों को शिक्षा के माध्यम से ज्ञानवान और जागरूक बनने, संगठित होकर मजबूत बनने और कठिन परिश्रम से समृद्धि प्राप्त करने की शिक्षा दी। 20 सितंबर, 1928 को नारायण गुरू जी की परिनिर्वाण हो गया था। केरल राज्य में उनके परिनिर्वाण दिवस 20 सितंबर को उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष “नारायण गुरु समाधि (Sree Narayana Guru Samadhi) दिवस” के रूप में मनाया जाता है। आज हमें अपने बहुजन महापुरुषों की सामाजिक दृष्टि को समझने और उनके आचरण से सीख लेने की आवश्यकता है।
लोक कल्याण के लिए आजीवन समर्पित रहे भारत के महान संत, असमानता व छुआछूत के खिलाफ मजबूत स्तंभ, वंचित समाज के मार्गदर्शक, महान दार्शनिक, लेखक, चिंतक व महापुरूष, बोधिसत्व नारायणा गुरु जी को कृतज्ञतापूर्ण नमन 🙏