बहुजन नायक मान्यवर साहब कांशीराम जी
(15 मार्च, 1934 – 09 अक्टूबर, 2006)
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समाज में कोई व्यक्ति अकेला न मरे, सभी अपना उत्तराधिकारी या अपने जैसी बहुजन विचारधारा वाला कम से कम एक व्यक्तित्व जरूर तैयार करें। मैं अकेला ही चला था जानने मंजिल, लोग जुङते गये और कारवां बनता गया…. मान्यवर साहब कांशीराम।
बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम साहब का 15 मार्च, 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर ग्राम में हुआ था। वह जिस परिवार में पैदा हुए थे, वह बहुजन समाज का परिवार था। आपके पिता हरि सिंह जी के सभी भाई सेना में थे। हरि सिंह जी सेना में भर्ती नहीं हुए थे, क्योंकि जो चार एकड़ की पैतृक जमीन परिवार के पास थी, उसकी देखभाल के लिए किसी पुरुष सदस्य का घर पर होना जरूरी था। कांशीराम जी के दो भाई और चार बहनें थीं। इनमें से अकेले कांशीराम जी ने रोपड़ के गवर्नमेंट कॉलेज से स्नात्तक तक की पढ़ाई पूरी की। 22 साल की आयु में अर्थात वर्ष 1956 में कांशीराम जी को एक राजपत्रित पद पर सरकारी नौकरी मिल गई। वर्ष 1958 में उन्होंने डिफेंस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) में काम करना शुरू कर दिया। वह पुणे के पास डीआरडीओ की एक प्रयोगशाला में कार्यरत थे। यहां आने के बाद उन्होंने देखा कि पिछड़ी जाति के लोगों के साथ किस तरह का भेदभाव और उनका किस तरह से शोषण हो रहा है। कांशीराम जी के लिए पहली बार स्तब्ध और दुखी कर देने वाला अनुभव उनके ही कार्यस्थल में कार्यरत् मान्यवर दीना भाना बाल्मीकि जी के साथ कारित दुर्भावनाग्रस्त घटित घटना थी। यहीं से कांशीराम जी में एक ऐसी चेतना की शुरुआत हुई, जिसने उन्हें सिर्फ अपने और अपने परिवार के हित के लिए काम करने वाले सरकारी कर्मचारी के बजाय एक बड़े मकसद के लिए काम करने वाले बहुजन नायक बनने की दिशा में आगे बढ़ा दिया। कांशीराम जी को पहली बार बाबा साहब और उनके विचारों से परिचित कराने का काम डी.के. खापर्डे जी ने किया। खापर्डे जी भी डी.आर.डी.ओ. में ही कार्यरत थे। वह भी बहुजन समाज से ही थे। खापर्डे जी ने ही कांशीराम साहब को बाबा साहब की भाषण पुस्तक जाति का बीजनाश (एनाहिलेशन ऑफ कास्ट) पढ़ने को दी थी। जिस रात कांशीराम जी को यह पुस्तक मिली, उस रात वह सोए नहीं और तीन बार इसे पढ़ डाला। इसके बाद उन्होंने अंबेडकर की वह किताब भी पढ़ी, जिसमें उन्होंने यह विस्तार से बताया है कि महात्मा गांधी जी ने और कांग्रेस ने बहुजनों के लिए क्या किया है। कांशीराम जी ने बाद में कई मौकों पर माना कि इन दो किताबों का उन पर सबसे अधिक प्रभाव रहा।
यहां से कांशीराम जी जिस रास्ते पर चल पड़े, उसमें सरकारी नौकरी ज्यादा दिनों तक चलनी नहीं थी। उन्होंने बहुजन समाज के दीना भाना जी द्वारा बाबा साहब और बुद्ध जयंती पर छुट्टी की मांग पर किए प्रतिकार पर बहुजन समाज के लिए नौकरी छोङने का निश्चय कर लिया। नौकरी छोड़ने पर उन्होंने 24 पन्नों का एक पत्र अपने परिवार को लिखा और इसमें उन्होंने बताया कि अब वह परिवार के लिए संन्यास ले रहे हैं और परिवार के साथ उनका कोई रिश्ता नहीं है। वह अब परिवार के किसी भी आयोजन में नहीं आ पाएंगे। उन्होंने इस पत्र में यह भी बताया कि वे ताजिंदगी विवाह नहीं करेंगे और उनका पूरा जीवन बहुजन समाज के उत्थान को समर्पित है।
जिस दौर में कांशीराम साहब बहुजनों के उत्थान के मकसद के साथ जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे, उस दौर में देश का प्रमुख दलित संगठन रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया थी। कांशीराम जी इससे जुड़े और जल्दी ही उनका इससे मोहभंग भी हुआ। 14 अक्टूबर, 1971 कांशीराम जी ने अपना पहला संगठन बनाया और इसका नाम था – शिड्यूल कास्ट, शिड्यूल ट्राइब, अदर बैकवर्ड क्लासेज ऐंड माइनॉरिटी एंप्लॉइज वेल्फेयर एसोसिएशन। संगठन के नाम से साफ है कि कांशीराम जी इसके जरिए सरकारी कर्मचारियों को जोड़ना चाहते थे, लेकिन सच्चाई यह भी है कि उनका लक्ष्य ज्यादा व्यापक था। वर्ष 1973 आते-आते कांशीराम जी और उनके सहयोगियों की मेहनत के बूते यह संगठन महाराष्ट्र से फैलता हुआ दूसरे राज्यों तक भी पहुंच गया। इसी साल कांशीराम जी ने इस संगठन को एक राष्ट्रीय स्तर देने का काम किया और इसका नाम हो गया ऑल इंडिया बैकवर्ड ऐंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लॉइज फेडरेशन। यह संगठन बामसेफ के नाम से जाना जाने लगा। 80 के दशक की शुरुआत होते-होते यह संगठन काफी तेजी से बढ़ा। उस समय बामसेफ के 92 लाख सदस्य थे, जिसमें बड़ी संख्या में वैज्ञानिक और डॉक्टर भी शामिल थे। तत्पश्चात कांशीराम साहब ने वर्ष 1981 में डीएस-4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) की स्थापना की। इसके जरिए कांशीराम जी न सिर्फ दलितों, पिछङों को बल्कि अल्पसंख्यकों को भी बहुजन समाज में बांधकर एकजुट किया। डीएस-4 के तहत कांशीराम जी ने सघन जनसंपर्क अभियान चलाया। उन्होंने एक साइकिल मार्च निकाला, जिसने सात राज्यों में तकरीबन 3,000 किलोमीटर की यात्रा की। वह वर्ग उनके पीछे चलने लगा, जिसे साथ लाने के लिए कांशीराम जी ने डीएस-4 बनाया था। वह अक्सर कहा करते थे कि-बाबा साहब किताबें इकट्ठा कर उनके माध्यम से बहुजन समाज को जागृत करते थे, मैं लोगों को इकट्ठा कर जागृति लाऊंगा। उन्होंने तब की मौजूदा पार्टियों में बहुजनों के स्थान व उनके महत्व की सघन पड़ताल की और तब उन्हें अपनी अलग पार्टी खड़ा करने की जरूरत महसूस हुई। इसी सामाजिक पूंजी से प्रेरित होकर कांशीराम साहब ने 14 अप्रैल, 1984 को एक राजनीतिक संगठन बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की। बसपा ने सियासत में जो भी हासिल किया, उसमें उस मजबूत बुनियाद की सबसे अहम भूमिका रही, जिसे कांशीराम जी ने डीएस-4 के जरिए रखा था। कांशीराम जी को मालूम था कि उत्तर प्रदेश में अगर वह खुद आगे आते हैं तो उनकी स्वीकार्यता बेहद व्यापक नहीं होगी, क्योंकि उन्हें इस सूबे में बाहरी यानी पंजाबी के तौर पर देखा जाएगा। उन्हें उत्तर प्रदेश के लिए वहीं का कोई पिछङा बहुजन चेहरा चाहिए था। ऐसे में उन्होंने मायावती जी को चुना, जो 03 जून, 1995 को प्रदेश की पहली बार मुख्यमंत्री बनीं। भले ही बसपा की स्थापना को उस वक्त मीडिया ने कोई तवज्जो नहीं दी हो, लेकिन देश के सियासी पटल पर कांशीराम जी के विचारों वाली पार्टी के उभार से राजनीति फिर कभी पहले जैसी नहीं रही।
वह सदैव सादा जीवन जीने में विश्वास करते थे। तड़क-भड़क के जीवन से वह सदा दूर रहे। अथक परिश्रम में जीवन जीते हुए उन्होंने न कभी पहनने का शौक पाला न खाने का। जैसे पहनने को मिल गया, वैसा पहन लिया, जैसा खाने को मिल गया वैसा खा लिया। 03 जोड़ी कपड़ों की अतिरिक्त उन्होंने कभी कपड़े नहीं बनवाए, ऐसा सादगी भरा था साहब कांशीराम का जीवन। उनसे संबंधित एक घटना जो आज भी हर बहुजन की आँखेें नम कर देगा। बात वर्ष 1971-1972 की है। उन्हें सर्दी के मौसम में संगठन के कार्य के लिए कहीं जाना था। तब वह नौकरी छोड़ चुके थे तथा समाज को संगठित करने में तेजी से लगे हुए थे। उस समय उनकी कोई भी पहचान नहीं बन पाई थी। ऐसे में पैसे की किल्लत होना लाजिमी था। सर्दी से बचने के लिए उन्होंने एक कोट खरीदने की योजना बनाई। वह पुराने कपड़ों के बाजार में पहुंचे। पुराने कोट पर भी वे अधिक पैसे बर्बाद करने के पक्ष में नहीं थे, उन्होंने दुकानदार से और सस्ता कोट दिखाने को कहा। दुकानदार ने व्यंग्य में कहा पास के मुर्दा घाट में वहां का डोम मुर्दों के कपड़े बेचता है, इससे सस्ता तो वहीं मिल सकता है। साहब कांशीराम बिना कुछ सोंचे मुर्दा घाट जा पहुंचे। वहां रखे मुर्दों के कोटों में से एक कोट उन्होंने ₹5 में खरीद लिया तथा उसे पहने खुशी-खुशी अपने मिशन पर निकल गए। सादगी की ऐसी मिसाल किसी भी भारतीय राजनीतिज्ञ में अब ढूंढने से नहीं मिलेगी।”
09 अक्टूबर, 2006 को लंबी बीमारी के बाद हम बहुजनों के मसीहा साहब कांशीराम जी का नई दिल्ली में परिनिर्वाण हो गया। वर्ष 2002 में, साहब कांशीराम जी ने 14 अक्टूबर, 2006 को बाबा साहब के धम्म परिवर्तन की 50 वीं वर्षगांठ के मौके पर बौद्ध धम्म ग्रहण करने की अपनी मंशा की घोषणा की थी। साहब कांशीराम जी की मंशा थी कि उनके साथ ही उनके 05 करोड़ बहुजन समर्थक भी इसी समय धम्म परिवर्तन करें। उनकी धम्म परिवर्तन की इस योजना का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह था कि उनके समर्थकों में केवल पिछङे ही शामिल नहीं थे, बल्कि विभिन्न जातियों के लोग भी शामिल थे, जो भारत में बौद्ध धम्म के समर्थन को व्यापक रूप से बढ़ा सकते थे। किन्तु 09 अक्टूबर, 2006 को साहब का परिनिर्वाण हो गया और उनकी बौद्ध धम्म ग्रहण करने की यह मंशा अधूरी रह गयी। कांशीराम साहब का मानना था कि हम बौद्ध धम्म तभी ग्रहण करेंगे, जब केंद्र में हमारी पूरी सरकार हो, वह ऐसा इसलिए करना चाहते थे, क्योंकि वह कहते थे कि हम धम्म बदलकर देश में धाम्मिक बदलाव तभी ला सकते हैं, जब हमारे हाथ में सत्ता हो और हमारे साथ करोड़ों लोग एक साथ बौद्ध धम्म ग्रहण करें। यदि हम बिना शासन-सत्ता के बौद्ध धम्म ग्रहण कर लेंगे, तो हमारे साथ कोई नहीं खड़ा होगा और केवल हमारा ही धम्म बदलेगा, हमारे लोगों का नहीं, इससे समाज में किसी तरह के धाम्मिक क्रांति की लहर नहीं उठेगी। वह प्रसिद्ध सामाजिक चिंतक व लेखिका गेल ऑम्वेट के लेखों को पढ़ते व चर्चा करते थे। आज बहुजन समाज के लोग कांशीराम जी के नाम के साथ “मान्यवर”, “बहुजन नायक” और “साहब” जैसे आदरसूचक शब्दों के साथ सम्मान व आदर स्वरूप उनको सम्बोधित करते हैं।
बहुजन आंदोलन महान सामाजिक क्रांतिकारियों के त्याग बलिदान अविस्मरणीय संघर्ष तथा करोड़ों प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के खून पसीने की बपौती है। यही कारण है कि कांशीराम साहेब आज संगठन, समुदाय, क्षेत्र देश या धर्म की सीमाओं से परे बहुजन नायक के रूप में स्थापित हो रहे हैं।
उन्होंने अपने संघर्ष से वंचितों को फ़र्श से अर्श तक पहुंचाया, लेकिन अपने ख़ुद के लिए आरंभ से अंत तक एक जैसे बने रहे। वह कहते थे (चमचा युग-पुस्तक) यह ‘चमचे’ वह नेता हैं, जो पिछङों के ‘स्वतंत्रता संघर्ष’ में पिछङे संगठनों का साथ देने के बजाय विरोधी विचारधारा के बड़े राजनीतिक दलों में अपने लिए मौक़े तलाशते रहते हैं। साहब कांशीराम का मानना था कि जब-जब कोई पिछङा संघर्ष गैर बराबरी व्यवस्था को अभूतपूर्व चुनौती देते हुए सामने आता है, तब-तब असमानतापूर्ण वर्चस्व वाले राजनीतिक दल, उनके पिछङे नेताओं को सामने लाकर आंदोलन को कमज़ोर करने का काम करते हैं। साहब कांशीराम ने लिखा है कि ‘औज़ार, दलाल, पिट्ठू अथवा चमचा बनाया जाता है सच्चे, खरे योद्धा का विरोध करने के लिए। जब खरे और सच्चे योद्धा होते हैं, चमचों की मांग तभी होती है। जब कोई लड़ाई, कोई संघर्ष और किसी योद्धा की तरफ से कोई ख़तरा नहीं होता तो चमचों की ज़रूरत नहीं होती, उनकी मांग नहीं होती। प्रारंभ में उनकी उपेक्षा की जाती है, किंतु बाद में जब कभी पिछङे वर्गों का सच्चा नेतृत्व सशक्त और प्रबल हो जाए, तो उनकी उपेक्षा नहीं की सजा सकती, इस मुक़ाम पर आकर समय-समय पर गैर पिछङों को यह ज़रूरत महसूस होती है कि वह पिछङे वर्गों के सच्चे नेताओं के ख़िलाफ़ चमचे खड़े करें। उनका कहना था कि राजनीति चले, न चले, सरकार बने, न बने पर सामाजिक परिवर्तन की गति किसी भी कीमत पर रूकने नहीं चाहिए। उनका सपना भारत को सम्राट अशोक का भारत अर्थात् संविधान का भारत बनाने का था। आज बहुजन समाज को ऎसे प्रखर ऊर्जावान, प्रतिबद्ध एवं साहसी युवाओं की सख्त जरूरत है, जो अपना सर्वस्व त्याग कर साहब कांशीराम जी के बनाए हुए रास्ते पर आजीवन चल सकें। हमारी आधी-अधूरी प्रतिबद्धता और सक्रियता आधे-अधूरे ही परिणाम देगी, जो समाज में निराशा का भाव उत्पन्न करेगी। पूर्ण संकल्पित, पूर्ण समर्पित तथा अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं, आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं को समाज के लिए बलिदान कर देने वाले कार्यकर्ता ही समतामूलक, प्रबुद्ध समाज और संविधान का भारत की संकल्पना को साकार कर सकते हैं। हम भारत के लोगों का पूर्ण विश्वास है कि हम सब के सांझा प्रयासों से साहब कांशीराम जी के “सम्राट अशोक के भारत” का देखा गया वह सपना एक दिन जरूर पूरा होगा।
न सिर्फ बहुजन राजनीति बल्कि पूरी भारतीय राजनीति का व्याकरण बदल कर रख देने वाले, भारतीय राजनीति और समाज में एक बड़ा परिवर्तन लाने वाले, एक वास्तविक बहुजन चिंतक और ज़मीनी कार्यकर्ता, दूरदर्शी, वंचितों की सशक्त आवाज, पिछङों को राजनीति और सामाजिक परिवर्तन की राह दिखाने वाले, सामाजिक न्याय की व्यावहारिक सीख देने वाले, सामाजिक क्रांति के महानायक, बहुजन महापुरूषों व उनकी विचारधारा को घर-घर पहुंचाने वाले, बहुजनों को समाज का नेता व शासक बनाने वाले, बहुजन आंदोलन के सफल नायक बामसेफ, डी.एस.फोर, बीएसपी, बहुजन समाज की धारणा के संस्थापक और बाबा साहब के समता मूलक विचारधारा को पुनर्जीवत करने वाले, त्याग और आत्म विश्वास की बेमिसाल शख्सियत, सोती कौम को जगाकर उसमें सत्ता की भूख पैदा करने वाले वैज्ञानिक, शेर-दिल, पूर्ण व्यावहारिक संविधानवादी, बहुजन आंदोलन को पुनर्जीवित एवं राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करके बहुजन समाज निर्माण के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम साहब को कृतज्ञतापूर्ण नमन। 🙏आप बहुजन समाज के हमदर्द “हम भारत के लोगों” के दिलों-दिमाग में हमेशा मिशनरी प्रेरणास्रोत बनकर आजीवन प्रेरित करते रहेंगे।