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महामना ज्योतिराव गोविंदराव फुले

महामना ज्योतिराव गोविंदराव फुले जी
(11 अप्रैल, 1827-28 नवंबर, 1890)
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महान वह नहीं होते, जो धारा के विपरीत बहते हैं। वास्तव में महान वह होते हैं, जो धारा को अपने हिसाब से मोड़ लेते हैं। वह भले ही शुरू में अकेले होते हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनके साथ पूरा कारवां बन जाता है। फिर वह जहां से भी गुजरते हैं, वहां उनके पैरों के निशान बन जाते हैं, जो आने वाली पीढ़ियों को राह दिखाते हैं। महामना ज्योतिराव गोविंदराव फुले जी ऐसी ही एक महान शख्सियत थे। एक साधारण बहुजन परिवार में उनका जन्म पेशवाई गढ़ कहे जाने वाले राज्य पुणे (महाराष्ट्र के सतारा जिले) में 11 अप्रैल, 1827 को हुआ था। उनके नाम में “फुले” शब्द माली जाति से होने की वजह से आया है। आपके पिताजी का नाम गोविन्दराव और माताजी का नाम चिमणाबाई था। महामना फुले जी जब एक वर्ष के ही थे, तभी उनकी माताजी चिमणाबाई का निधन हो गया था। उनका पालन-पोषण उनके पिता की मुंहबोली बुआ सगुणाबाई जी ने किया था। सगुणाबाई जी ने ही उन्हें आधुनिक चेतना से अवगत कराया।
सात वर्ष की उम्र में ज्योतिराव जी को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा गया, लेकिन जल्दी ही सामाजिक दबाव में जोतीराव के पिता गोविंदराव जी ने उन्हें स्कूल से बाहर निकाल लिया और वह अपने पिताजी के साथ खेतों में काम करने लगे। उनकी पढ़ने की तीव्र जिज्ञासा और प्रतिभा से उर्दू-फारसी के जानकार गफ्फार बेग और ईसाई धर्मप्रचारक लिजीट साहब बहुत प्रभावित थे। उन्होंने गोविंदराव को सलाह दी कि वह ज्योतिराव जी को पढ़ने के लिए भेजें, तब फिर से ज्योतिराव स्कूल जाने लगे। 1847 में ज्योतिराव जी स्कॉटिश मिशन के अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने लगे। यहीं पर होनहार विद्यार्थी ज्योतिराव का परिचय आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से हुआ। स्काटिश मिशन स्कूल में दाखिले के बाद ज्योतिराव फुले जी के रग-रग में समता और स्वतंत्रता का विचार बसने लगा। उनके सामने एक नई दुनिया खुल गई। तर्क उनका सबसे बड़ा हथियार बन गया। वह हर चीज को तर्क और न्याय की कसौटी पर कसने लगे। अपने आस-पास के समाज को वह एक नए नज़रिए से देखने लगे। इसी दौरान उन्हें व्यक्तिगत जीवन में एक जातिगत अपमान की घटना का सामना करना पड़ा था, इसी घटना ने जाति व्यवस्था और असमानतावाद के संदर्भ में उन्हें झकझोर दिया। वर्ष 1847 तक मिशन स्कूल की पढ़ाई उन्होंने पूरी कर ली। तब तक ज्योतिबा फुले जी को इस बात का भली प्रकार से अहसास हो गया था कि शिक्षा ही वह हथियार है, जिससे पिछङों और महिलाओं की मुक्ति हो सकती है। वर्ष 1840 में उनका विवाह मात्र 09 वर्ष की सावित्रीबाई फुले जी से हुआ। वह भी पढ़ना चाहती थीं, परंतु उन दिनों लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था। शिक्षा के प्रति अपनी जीवन-संगिनी की ललक देखकर जोतीराव फुले ने उन्हें घर पर ही पढ़ाना शुरू कर दिया। सबसे पहले शिक्षा की ज्योति उन्होंने अपने घर में ही जलाना शुरू कर, अपनी जीवन-संगिनी सावित्रीबाई फुले जी को शिक्षित कर उन्हें ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराया। इस पर स्थानीय लोगों ने जमकर उनका विरोध किया, परंतु फुले जी अड़े रहे। बाद में उन्होंने सावित्रीबाई फुले, सगुणाबाई, फ़ातिमा शेख़, उस्ताद लहूजी सालवे और अन्य कई सहयोगियों के साथ मिलकर कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना भी की। फुले-दंपति ने वर्ष 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्कूल भी खोला, यह स्कूल महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में किसी भारतीय द्वारा लड़कियों के लिए विशेष तौर पर खोला गया पहला स्कूल था। यह स्कूल खोलकर ज्योतिराव फुले जी और सावित्रीबाई फुले जी ने खुलेआम महिलाओं के शैक्षिक प्रतिबंध को खुली चुनौती दी। जाति प्रथा, पाखंडवाद, स्त्री-पुरुष असमानता और अंधविश्वास के साथ समाज में व्याप्त आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध सामाजिक परिवर्तन की जरूरत भारत में शताब्दियों से रही है। इस लक्ष्य को लेकर आधुनिक युग में सार्थक, सशक्त और सफल आंदोलन चलाने का श्रेय प्रथमत: फुले-दम्पत्ति को ही जाता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता के लिए उनके द्वारा चलाए गए आंदोलनों के कारण ही उन्हें आधुनिक भारत की परिकल्पना का प्रथम रचनाकार भी माना जाता है। वर्ष 1848 में मात्र 21 वर्ष की अवस्था में उन्होंने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। वह मृत्युपर्यंत लोगों के लिए काम करते रहे।
आधुनिक भारत में पिछङों, महिलाओं और किसानों के मुक्ति-संघर्ष के पहले नायक ज्योतिराव फुले जी ही हैं। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि बोधिसत्व बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर जी ने तथागत बुद्ध और कबीर के साथ महामना ज्योतिबा फुले जी को भी अपना गुरु माना है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘शूद्र कौन थे’ महामना फुले को समर्पित करते हुए बाबा साहब ने लिखा है कि- “जिन्होंने समाज की छोटी जातियों को उच्च वर्णों के प्रति उनकी ग़ुलामी की भावना के संबंध में जाग्रत किया और जिन्होंने सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना को विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण बताया, उन आधुनिक भारत के महान महात्मा फुले की स्मृति में सादर समर्पित।” महामना फुले पर ‘थॉमस पेन’ जैसे आधुनिक विचारकों का असर था। वह एक हद तक ‘मार्टिन लूथर’ से भी प्रभावित थे। ‘ थामस पेन’ मनुष्य के अधिकारों के प्रबल हिमायती थे। लोगों को अशिक्षा, पाखण्डवाद, जातीय भेदभाव, उत्पीड़न, भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध जागरूक करने हेतु जो पुस्तकें उन्होंने अपने जीवन में लिखीं, उनमें प्रमुख हैं- 1- तृतीय रत्न (नाटक, 1855), 2- छत्रपति राजा शिवाजी का पंवड़ा (1869), 3- ब्राह्मणों की चालाकी( 1869), 4- ग़ुलामगिरी (1873), 5- किसान का कोड़ा (1883), 6- सतसार अंक-1 और 2 (1885), 7- इशारा (1885), 8-अछूतों की कैफियत (1885), 9- सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक (1889), 10- सत्यशोधक समाज के लिए उपयुक्त मंगलगाथाएं तथा पूजा विधि (1887), 11-अंखड़ादि काव्य रचनाएं।
पाखंड व आडम्बरों के माध्यम से लोगों को किस तरह मूर्ख बनाया जाता है, यह दर्शाने के लिए 1855 में फुले ने ‘तृतीय रत्न’ नाटक की रचना की। इस नाटक में उन्होंने बताया कि पाखंडी, अशिक्षित जनता को किस तरह कदम-कदम पर भरमाते हैं। डर और अनीति का भय दिखाकर उनका धन लूटने में लगे रहते हैं। कभी डर तो कभी प्रलोभन के माध्यम से उन्हें कर्मकांडों के लिए मजबूर किया जाता है। कभी-कभी तो वह कर्ज लेकर भी कर्मकांडों का निर्वाह करते हैं। उससे दुख-दलिद्दर मिटना तो दूर, महाजन का कर्ज सिर पर चढ़ जाता है। उसे चुकाने के लिए उन्हें जमींदार के घर बेगार करनी पड़ती है। ‘तृतीय रत्न’ पिछङों के धार्मिक शोषण के विरुद्ध उनका पहला शंखनाद था। फुले के यही तेवर उनकी अगली पुस्तक ‘किसान का कोड़ा’ (1869) में भी दिखाई पड़ते हैं। फुले इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक शोषण के विभिन्न स्तरों पर विचार करते हैं।
वह आधुनिक शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान और तर्क को महत्व देते थे। वह लगातार 25 वर्षों तक समाज सुधार के काम में लगकर विरोधियों से अकेले ही लोहा लेते रहे। अब आगे उन्हें अपने सामाजिक आंदोलन को विस्तार देने और विचारों को देश भर में विस्तार देने के लिए एक संगठन की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। तब उन्होंने कुछ उत्साही युवाओं को साथ लेकर 24 सितंबर, 1873 को पुणे में, संगठन के गठन की घोषणा के अवसर पर, महाराष्ट्र के अलग-अलग जिलों से आए प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था—”अपने मतलब के सहारे हजारों वर्षों तक आपको नीच मानकर जो लोग तुम्हें लूटते आए हैं, उन लोगों की ‘गुलामगिरी’ से तुम्हें मुक्त कराने के लिए, सदोपदेश और ज्ञान के द्वारा, तुम्हें-तुम्हारे अधिकारों से परिचित कराने, उनके बनावटी और साधक ग्रंथों से मुक्त कराने व पाखण्डवाद के विरुद्ध एक सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत करते हुए “सत्यशोधक समाज” की स्थापना की गई है।”
‘सत्यशोधक समाज’ पूरी तरह से गैर-राजनीतिक संगठन था। फुले के प्रभाव तथा उनकी अनूठी कार्यशैली के फलस्वरूप उसको समाज में पांव जमाते देर न लगी। कुछ ही महीनों में मुंबई और पुणे के शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी शाखाएं स्थापित होने लगी थीं। उनका प्रभाव महाराष्ट्र की लगभग सभी पिछङी जातियों पर था। उन दिनों समाज में अनेकानेक कुरीतियां व्याप्त थीं। उनमें प्रमुख थीं—जातीय भेदभाव, छूआछूत, बाल वैधव्य, भ्रूण हत्या, विवाह आदि अवसरों पर दिखावा, फिजूलखर्ची आदि। ‘सत्यशोधक समाज’ का एक नियम था—शादी-विवाह, श्राद्ध-कर्म आदि के अनुष्ठानों के लिए किसी गैर पिछङों को बुलाने की बजाए व्यक्ति स्वयं करे या फिर परिवार के सदस्यों के द्वारा संपन्न कराए। फिजूलखर्ची पर रोक लगे। बचे हुए धन का उपयोग बच्चों की शिक्षा के लिए किया जाए।
वह अक्सर कहा करते थे—’विद्या के न होने से बुद्धि गई, बुद्धि के न होने से नैतिकता न रही, नैतिकता के लोप से गतिशीलता लुप्त हुई, गतिशीलता लुप्त होने से धन-दौलत गई, धन-दौलत न रहने पर शूद्रों का पतन हुआ, इतना अनर्थ एक ‘अविद्या’ से हुआ।’ 28 नवम्बर, 1890 को महामना ज्योतिबा फुले जी भले हमें छोड़कर चले गए, लेकिन महामना ज्योतिबा फुले जी ने अपनी जीवन संगिनी सावित्रीबाई फुले जी के साथ मिलकर सामाजिक रूप से पिछङों और महिलाओं के शोषण के खिलाफ जागरण की जो मशाल जलाई, आगे चलकर उनके बाद उस मशाल को उनकी जीवन संगिनी सावित्रीबाई फुले जी ने जलाए रखा। माता सावित्रीबाई फुले जी के बाद इस मशाल को छत्रपति शाहू जी महाराज ने अपने हाथों में ले लिया। बाद में उन्होंने यह मशाल संविधान निर्माता बोधिसत्व बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के हाथों में थमा दी। बाबा साहब के बाद मान्यवर कांशीराम साहब ने उस मशाल को सामाजिक परिवर्तन की ज्वाला में बदल दिया। बहुजन महापुरूषों में से किसी एक को ‘आधुनिक भारत का वास्तुकार’ चुनना पड़े, तो वह निश्चित ही महामना ज्योतिराव गोविंदराव फुले ही होंगे। उनका कार्यक्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। स्त्री शिक्षा, बालिकाओं की भ्रूण हत्या, बाल-वैधव्य, विधवा-विवाह, बालविवाह, जातिप्रथा और छूआछूत उन्मूलन, धार्मिक आडंबरों का विरोध आदि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज न कराई हो। महामानव व बाबा साहब के गुरु महामना ज्योतिबा फुले जी को कृतज्ञतापूर्ण नमन। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “गुलामगीरी” हम सबको अवश्य पढ़ना चाहिए 🙏