ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’
(17 सितंबर, 1879—24 दिसंबर, 1973)
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महानतम बहुजन चिंतक और विचारक, तर्कवादी, केवल मानवीय विवेक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर भरोसा करने वाले, किसी भी किस्म की अंधश्रद्धा, कूपमंडूकता, जड़ता, अतार्किकता और विवेकहीनता को सिरे से अस्वीकार करने वाले, वर्चस्व, अन्याय, असमानता, पराधीनता और अज्ञानता के हर रूप को वे चुनौती देने वाले, विशिष्ट तर्कपद्धति, तेवर और अभिव्यक्ति शैली से युक्त, आधुनिक युग के मसीहा, ‘दक्षिण-पूर्वी एशिया के सुकरात, समाज सुधारवादी आंदोलनों के पितामह तथा अज्ञानता, अंधविश्वास, रूढ़िवाद और निरर्थक रीति-रिवाजों का कट्टर विरोधी, वाल्टेयर की श्रेणी के महान दार्शनिक, बहुजन चिंतक, लेखक, वक्ता और महान राजनीतिज्ञ इरोड वेंकट नायकर रामासामी(पेरियार ई.वी. रामासामी नायकर जी का जन्म दिनांक 17 सितम्बर, 1879 को पश्चिमी तमिलनाडु के इरोड में बहुजन समाज में(बलीजा/धनगर/पाल/गड़रिया जाति) में हुआ था। आपके पिताजी का नाम वेंकटप्पा नायकर तथा माताजी का नाम चिन्नाबाई था। पिता वेंकटप्पा नायकर जी एक बड़े व्यापारी थे।
वर्ष 1885 में पेरियार का एक स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में दाखिला हुआ, पर कोई पाँच साल से कम की औपचारिक शिक्षा मिलने के बाद ही उन्हें अपने पिताजी के व्यवसाय से जुड़ना पड़ा। उनके घर पर भजन तथा उपदेशों का सिलसिला चलता रहता था। बचपन से ही वह इन उपदेशों में कही गयी बातों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते रहते थे। 19 वर्ष की आयु में उनका विवाह नगम्मल नाम की 13 वर्षीया स्त्री से हो गया और उन्होंने अपनी जीवन-संगिनी को भी अपने तार्किक विचारों से ओत प्रोत कर दिया।पेरियार रामास्वामी जी का परिवार धार्मिक तथा रूढ़िवादी था। अपने परिवार की परम्पराओं के विपरीत पेरियार रामास्वामी जी किशोरावस्था से ही तार्किक पद्धति से चिन्तन–मनन करने लगे थे। इनके घर पर अक्सर धार्मिक अनुष्ठान एवं प्रवचन होते रहते थे। रामास्वामी जी अपने तार्किक प्रश्नों से अनुष्ठानकर्ताओं को अक्सर संकट में डाल देते थे। उम्र बढ़ने के साथ– साथ पेरियार अपनी वैज्ञानिक सोच पर और दृढ़ होते गये। परिणामस्वरूप परिवार की अन्धविश्वास–युक्त एवं ढ़कोसले वाली बातें, एक के बाद एक रामास्वामी के प्रहार का निशाना बनने लगीं। जो भी कार्य उन्हें अनावश्यक लगता था, या तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता था, वह उसे अवश्य ही बन्द कराने का प्रयास करते। उदाहरणस्वरूप– स्त्रियों द्वारा गले में पहने जाने वाला आभूषण ‘बाली’ या ‘हंसुली’ को वह बंधन या गुलामी का प्रतीक मानते थे। अतः उन्होंने अपनी पत्नी के गले से भी ‘हंसुली’ उतरवा दिया था।अपनी पत्नी व परिवार के अन्य सदस्यों को वह मन्दिर भी नहीं जाने देते थे। वह अक्सर अपने अस्पृश्य मित्रों को परिवार की परम्परा के विरुद्ध अपने घर बुलाते और साथ में भोजन कराते। पेरियार रामास्वामी का धर्म–विरुद्ध आचरण अब उनके परिवार के लोगों को भी खटकने लगा था। एक सफल व्यापारी होने के कारण उनके पिताजी ने जो सम्मान और प्रतिष्ठा समाज में अर्जित की थी, वह धीरे–धीरे घटने लगी थी। विशेष रूप से उनके पिताजी वेंकटप्पा नायकर को अपने धर्माचरण तथा विश्वास इतने प्रिय थे, कि वह अपने पुत्र तथा व्यापार को भी तिलांजलि दे सकते थे। मतभेदों ने शीघ्र ही छिट–पुट कहासुनी तथा विरोधों का रूप धारण कर लिया। अन्ततः रामास्वामी जी ने अपने पिता का घर छोड़ने का निश्चय कर लिया।गृहत्याग के पश्चात् रामास्वामी कुछ दिनों तक इधर–उधर घूमते रहे। बहुत दिनों तक वह संन्यासियों के साथ संन्यासी बनकर रहे। इस जीवन में उन्हें अपना स्वास्थ्य बिगाड़ने के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त न हो सका। कुछ दिनों के लिए वह काशी चले गए । वहां निःशुल्क भोज में जाने की इच्छा होने के बाद उन्हें पता चला कि यह सिर्फ एक जाति विशेष के लिए था। इससे इन्हें बहुत आघात लगा और वहीं से उन्होंने उनकी असलियत बताने की ठान ली । अन्ततः उन्होंने संन्यासी जीवन त्याग दिया और पुनः अपने घर लौट आये रामास्वामी जी ने भी अनुभव किया कि किसी बात पर सैद्धान्तिक वाद–विवाद करने, उससे टकराने या उससे बिल्कुल मुंह मोड़ लेने की अपेक्षा, उचित यह है कि उपस्थित समस्याओं पर मतभेद रखने वाले व्यक्तियों के साथ सहयोग करके उनके विचारों को बदलने का प्रयास किया जाय। पेरियार मूलरूप से एक सामाजिक क्रान्तिकारी थे। वह एक बुद्धिवादी, अनीश्वरवादी एवं वैज्ञानिक चिंतनयुक्त मानव थे। उनके चिंतन का मुख्य विषय समाज एवं तर्क था, फिर भी उनके विचार और दृष्टिकोण राजनीति एवं आर्थिक क्षेत्र में परिलक्षित होते हैं, उनका अटूट विश्वास था कि सामाजिक मुक्ति ही राजनैतिक एवं आर्थिक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगी,उनकी इच्छा थी कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने से पहले ही सामाजिक समानता स्थापित हो जानी चाहिए।अन्यथा स्वाधीनता का यह अभिप्राय होगा कि -“हमने विदेशी मालिक की जगह भारतीय मालिकों को स्वीकार कर लिया है।” उनका सोचना था कि यदि इन समस्याओं का समाधान स्वाधीनता प्राप्ति के पहले नहीं किया गया, तो जाति व्यवस्था और उनकी बुराइयां हमेशा बनी रहेंगी। उनका कहना था कि राजनैतिक सुधार से पहले सामाजिक सुधार जरूरी है।
स्वराज के लिए आंदोलन और कार्यक्रमों से प्रभावित होकर और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जी के अनुरोध पर पेरियार रामास्वामी नायकर 1919 में कांग्रेस से जुड़ तो गए, लेकिन कांग्रेस में एक जाति विशेष के वर्चस्व और जातिवादी असमान नीतियों के कारण पेरियार का जल्दी ही इससे मोहभंग हो गया। ज्योतिबा फूले की तरह पेरियार भी बहुजनों को भारत का मूल निवासी मानते हैं। विदेशी आक्रांताओं ने बहुजनों को ग़ुलाम बनाया और इस ग़ुलामी को अनवरत जारी रखने के लिए ही जाति व्यवस्था उन पर थोपी गई। अंधविश्वास और पाखण्ड के नाम पर बहुजनों का शोषण किया गया। धर्म के पाखंड का पेरियार ने मुखर होकर विरोध किया। पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’ लिखकर कई तार्किक प्रश्न खङे किए। वर्ष 1968 में ललई सिंह यादव जी ने ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ का हिन्दी अनुवाद करा कर ‘सच्ची रामायण’ नाम से प्रकाशित कराया। नवजागरण के दौर में स्त्री की शिक्षा और उसके अधिकार को सबसे अधिक बहुजन नायकों ने ही उठाया। पेरियार ने स्त्री की पराधीनता को स्पष्ट करते हुए लिखा-‘पुरुष स्त्री को अपनी संपत्ति मानता है और यह नहीं मानता कि उसके ही समान स्त्री की भी भावनाएँ हो सकती हैं।’
आगे वह लिखते हैं कि-‘पुरुष के लिए एक महिला उसकी रसोइया, उसके घर की नौकरानी, उसके परिवार या वंश को आगे बढ़ाने के लिए प्रजनन का साधन है और उसके सौंदर्यबोध को संतुष्ट करने के लिए एक सुंदर ढंग से सजी गुड़िया है।’ धर्म की बेड़ियों में जकड़ी स्त्री-पराधीनता को बेपर्दा करते हुए पेरियार पूछते हैं कि- धर्म में ज्ञान की और धन की देवियों को पूजा जाता है, फिर यह देवियाँ महिलाओं को शिक्षा तथा संपत्ति का अधिकार प्रदान क्यों नहीं करतीं? महिलाओं को तर्कसंगत ज्ञान और वैश्विक मामलों से संबंधित पर्याप्त शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें ऐसे साहित्य, इतिहास या कहानियों से दूर रखा जाना चाहिए जो अंधविश्वास और भय को जन्म देती हैं। महिलाओं की पराधीनता के कई कारणों में से प्रमुख कारण यह है कि उन्हें संपत्ति का अधिकार नहीं है।’ वह स्त्री और पुरुष की समता के पक्षधर हैं। पेरियार विवाह को पवित्र बंधन की जगह साझीदारी के रूप में देखते थे। उन्होंने इस विचार को दक्षिणी राज्यों में खूब फैलाया। बाल विवाह खत्म करने, विधवा महिलाओं को दोबारा विवाह का अधिकार देने को लेकर भी पेरियार ने आंदोलन चलाया। उनकी गिनती देश के बड़े समाज सुधारकों में भी होती है। उनका कहना है कि विवाह एक अनुबंध है। इसमें दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं। धर्म की कुरीतियों पर इतनी मुखरता से उन्होंने अपनी तर्कसंगत बात रखी कि बहुत से लोगों को यह उनकी ‘आस्था पर प्रहार’ लगा। वर्ष 1924 में पेरियार ने केरल के मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के लिए आंदोलन किया। बतौर एक्टिविस्ट, पेरियार की सबसे बड़ी पहचान निचली जातियों को सम्मान दिलाना रही। तमिलनाडु में पेरियार ने हिंदी थोपे जाने के खिलाफ भी आंदोलन चलाया। पेरियार का सबसे विवादित आंदोलन मूर्तियों के खिलाफ था। पेरियार जाति का उन्मूलन कर बहुजनों को एक अलग पहचान देना चाहते थे। उनका कहना था कि इसी से स्वतंत्रता, समानता और आत्मसम्मान सुरक्षित रह सकता है। पेरियार दूरदर्शी थे। कांग्रेस छोड़ने के बाद पेरियार जस्टिस पार्टी से जुड़ गए। तमिलनाडु के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर पेरियार का गहरा असर है। तमिलनाडु के भीतर कोई भी पार्टी खुले रूप में पेरियार की आलोचना नहीं कर सकती। वह पेरियार ही थे जिन्होंने द्रविड़ आंदोलन की शुरुआत की थी। तमिलनाडु के कई दल उनके इसी आंदोलन की पैदाइश हैं। बहुजनों के अधिकारों के लिए समर्पित, कर्मकांडवाद और अंधविश्वास के मुखर विरोधी रामास्वामी नायकर को उनके बहुजन अनुयायियों ने थंथाई (पिता) और पेरियार (महान) की उपाधियाँ प्रदान कीं। वर्ष 1970 में यूनेस्को ने पेरियार को ‘दक्षिण-पूर्व एशिया का सुकरात’ घोषित किया। वास्तव में, पेरियार भारत की सुदीर्घ बहुजन परंपरा के वाहक हैं। फुले, आंबेडकर और पेरियार आधुनिक युग में बहुजन चिंतन परंपरा के आधार स्तम्भ हैं। उन्हें आधुनिक भारत का चार्वाक कहे जाने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 29 मार्च, 1931 को तमिल साप्ताहिक कुडियारासु के सम्पादकीय में पेरियार ने भगत सिंह और गाँधी जी की तुलना करते हुए भगत सिंह के विचारों के साथ अपनी सहमति जतायी थी। 23 अगस्त, 1944 को वंचित समाज के दो महान महापुरुषों- बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर जी और ई. वी. रामासामी नायकर पेरियार जी की महाराष्ट्र में मुलाकात हुई थी। दक्षिण भारत में पेरियार साहब ने छुआछूत, अंधविश्वास, पाखंडवाद और जातिवाद के खिलाफ ज़बरदस्त तरीके से आवाज़ उठाई।
आधुनिक बहुजन चिंतन परंपरा के प्रमुख स्तंभ, महान तर्कवादी, राजनीतिज्ञ, बहुजनों के इस अप्रितम योद्धा, क्रांतिकारी लेखक और जातिवाद के विरुद्ध विद्रोही चेतना के प्रखर नायक पेरियार ई.वी.रामास्वामी नायकर जी का 24 दिसंबर, 1973 को 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया था। आज उनकी राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत को दक्षिण भारत में स्टालिन आगे बढ़ा रहे हैं। ई. वी. रामास्वामी नायकर जी का 94 साल जीना ही साबित करता है कि नास्तिक होने से कोई अल्पायु नहीं हो सकता।
वस्तुतः पेरियार ई.वी. रामासामी नायकर जी का आंदोलन “समता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण” विकसित करने का सामाजिक आंदोलन था, जो बाबा साहब द्वारा विरचित भारत का विधिक दस्तावेज “भारत का संविधान” के अनुच्छेद – 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18 और 51क (ज) में स्पष्ट दृश्यमान है। बहुजनो को पाखंड, अंधविश्वास, अंधविश्वास के षड्यंत्र से बाहर निकालने और उनकी पोल खोलने वाले, आजीवन बहुजनो तथा स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए प्रयासरत, बुद्धिवादी, कुशल राजनीतिज्ञ, लेखक, तर्कवादी चिंतक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले, सामाजिक क्रांति के नायक पेरियार ई.वी. रामासामी नायकर को कृतज्ञतापूर्ण नमन🙏