बाबा साहब ने “जातिभेद का बीजनाश”(Annihilation of Caste) जैसा वास्तविक व प्रसिद्ध लेख जिनके निमंत्रण पर लिखा था, उन मशहूर सामाजिक हस्ती का नाम था-सन्तराम बी.ए.। वर्ष 1936 में संतराम बी ए जी ने ‘जात-पात तोड़क मंडल’ की सभा की अध्यक्षता के लिए बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी को आमंत्रित किया था और बाबा साहब ने जाति विषयक शोधपूर्ण भाषण लिखकर जात-पात तोङक मंडल के सदस्यों को भेजा था। बाबा साहब का वह प्रस्तावित भाषण जब जात-पात तोङक मंडल के सदस्यों द्वारा पहली बार पढ़ा गया, तो मंडल के कुछ सदस्यों ने उनके इस प्रस्तावित भाषण के कुछ अंशों का विरोध कर, उन अंशों को भाषण से निकालकर, फिर भाषण करने का प्रस्ताव किया था, जिसको बाबा साहब ने तुरंत अस्वीकार कर दिया था।
संतराम बी.ए. जी का जन्म होशियारपुर, पंजाब स्थित ‘बसी’ नामक गांव में बहुजन समाज (प्रजापति-कुम्हार) के घर आज ही के दिन 14 फरवरी, 1887 को हुआ था। आपके पिताजी का नाम रामदास गोहिल जी और माताजी का नाम मालिनी देवी जी था। पिता रामदास गोहिल जी ने प्रथम पत्नी के देहांत के बाद पुनर्विवाह किया था। दरअसल ‘जाति-भेद का बीजनाश’ (Annihilation of Caste) बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी का लिखा वह भाषण था, जिसे उन्हें सन्तराम बी ए जी द्वारा बनाये “जाति-पात तोड़क मंडल” के मंच से लाहौर में दिनांक 12 दिसम्बर, 1935 को जनमानस को संबोधित करना था, परंतु तोङक मंडल के कुछ सदस्यों की संकीर्ण मानसिकता के कारण बाबा साहब उस सभा में नहीं गये और फलतः प्रस्तावित भाषण संबोधित नहीं कर सके। तत्पश्चात वही प्रस्तावित भाषण 15 मई, 1936 को मुंबई से बहुजन समाज तक पुस्तक के माध्यम से पहुंचाने के उद्देश्य से “Annihilation of Caste” नाम से बाबा साहब ने अपने व्यतिगत खर्चे से (1500 प्रतियाँ में) प्रकाशित कराया। भारतीय समाज जाति व्यवस्था पर आधारित समाज है। इसमें पैदा हुए हर बहुजन को, भले ही वह आज धनी ही क्यों न हो गया हो, कभी न कभी किसी न किसी रूप में जातिवाद(सामाजिक अपमान) का दंश झेलना ही पड़ता है। सन्तराम बी.ए. जी के साथ भी यही हुआ था। बचपन में प्रारंभिक शिक्षा के दौरान उन्हें जातीय प्रताड़ना से दो-चार होना पड़ा। उनकी कक्षा में पढ़ते गैर पिछङे समाज के बच्चे उन्हें जाति सूचक शब्दों से अक्सर अपमानित किया करते थे। अंग्रेजों के उस शासन काल में संत राम जी ने बी.ए. कर लिया था और अब उन्हें इस बात का एहसास हो गया था कि जाति उनका पीछा छोड़ने वाली नहीं है। उनके पास व्यक्तिगत अनुभव थे। आस-पास बहुजन समाज पर होता जातीय उत्पीड़न उन्हें सोचने पर मजबूर करता, प्रश्न खड़े करता और वह उन प्रश्नों के साथ जूझते रहते। अक्सर यह देखा गया है कि जातिवाद का शिकार होने के बावजूद बहुत ही कम लोग जातिवाद रूपी आतंकवाद के खिलाफ बग़ावत करते हैं। शिक्षा की कमी, संसाधनों का अभाव, राजनीतिक कूटनीति, अंधविश्वास, धार्मिक ताना-बाना, जातीय मर्यादाएं तोड़ने की सजाएं, यह कुछ मुख्य वजहें हैं कि बहुतेरे लोग जातीय व्यवस्था का शिकार होकर भी उसे समझ नहीं पाते और न ही लड़ पाते हैं।
सन्तराम बीए जी ने जातिवाद के खिलाफ जो बिगुल बजाया, उसकी अहमियत भारतीय लोकतंत्र में इतिहास के आंदोलन का एक अध्याय है। संतराम बी.ए. (ग्रेजुएट) करने के बाद अमृतसर जिले में चभाल गांव के मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यपक नियुक्त किए गए, किंतु नौकरी में रहकर समाज के शोषण को देखकर वह नौकरी से वर्ष 1913 में ही त्याग पत्र दे दिया और बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के रास्ते पर निकल पड़े। उन्हें यह बहुत नजदीक से आभास था कि कोई भी समाज तब तक आन्दोलित नहीं होता, जब तक कि उससे सम्पर्क कर उसके शोषण दमन के गुणसूत्र को परिभाषित न किया जाए, इसीलिए वह लोगों को जागरूक करने के लिए समाज में साहस के साथ उतरे। यह वह दौर था जब किसी भी तरह की जाति की मुखालिफत खतरे से ख़ाली नहीं था। लोगों के द्वारा बार-बार उन्हें दिग्भ्रमित किया जाता रहा व रास्ते में बहुत सारी अड़चनें डाली गयीं, लेकिन विशाल साहस रखने वाले संतराम बीए जी डिगे नहीं और जतिवाद के खिलाफ आजीवन संघर्षरत रहे। वह यह भी जानते थे कि उनका आंदोलन उनके बाद उनके विरोधी ख़त्म कर देंगे, इसीलिए वह उन्हें लिपिबद्ध करते हुये कुल 67 किताबें लिखीं, जिनमें ‘काम-कुंज’ (1929) का संपादन प्रेमचन्द जी ने किया था, जो लखनऊ के मुंशी नवलकिशोर प्रेस से छपी थी। संतराम बी.ए. जी एक अच्छे अनुवादक भी थे, उन्होंने ‘अलबेरूनी का भारत’ का अनुवाद किया जिसे इन्डियन प्रेस, प्रयाग ने चार भागों में प्रकाशित किया था। इसके अतिरिक्त संतराम बी.ए. जी ने ‘गुरूदत्त लेखावाली’ (1918) ‘मानव जीवन का विधान’ (1923) ‘इत्सिंग की भारत यात्रा’(1925) ‘अतीत कथा’(1930) ‘बीरगाथा’(1927) ‘स्वदेश-विदेश-यात्रा’ (1940) ‘उद्बोधनी’ (1951 ) ‘पंजाब की कहानियाँ’ (1951) ‘महाजनों की कथा’ (1958) पुस्तकों के अलावा ‘मेरे जीवन के अनुभव’(1963) नाम से आत्मकथा भी लिखी है। संतराम बी॰ ए॰ की आत्मकथा ‘मेरे जीवन के अनुभव’ विभिन्न दृष्टिकोण से आज पठनीय है। संतराम बी.ए. जी ने पाँच पत्रिकाओं का संपादन भी किया, जिनमें ‘उषा’(1914, लाहौर), ‘भारती’ (1920 जलन्धर), ‘क्रांति’ (1928, उर्दू लाहौर), ‘युगान्तर’ (जनवरी 1932, लाहौर), ‘विश्व ज्योति’(होशियारपुर) और ‘युगान्तर’ थीं।
यह वह पत्रिकाएं थीं, जिसमें तत्कालीन समाजिक सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीति आदि के मुद्दों पर सतत लेख छपते थे। जातिवाद पर संतराम बी.ए. जी का चिंतन स्पष्ट था ‘जाति-पांत और अछूत प्रथा’ में वह लिखते हैं कि-
‘‘इस अछूतपन का मूल कारण वर्ण-व्यवस्था या जात-पांत है, जब तक इस रज-रोगी की जड़ें नहीं कटतीं, अस्पृश्यता कदापि दूर नहीं हो सकती, जो लोग वर्ण-व्यवस्था को कायम रखते हुए अछूतपन को दूर करने का यत्न करते हैं, वह ज्वर के रोगी का हाथ बर्फ में रखकर उसका ज्वर शान्त करने का उपाय करते हैं।’’ वह कहते हैं कि-‘‘जन्म-मूलक वर्ण-व्यवस्था कोई ईश्वरीय नहीं, जिसके विरुद्ध आवाज उठाना घोर नास्तिकता समझी जाए, अपने समाज के कल्याण के लिए उसे हम एकदम ठुकरा सकते हैं, हमें इसमें किसी का भय नहीं है।’’
बाबा साहब ने जतिवाद को तोड़ने के लिए अंतर्जातीय विवाह पर जोर दिया था और सन्तराम जी का भी यही मनाना था कि जाति को ख़त्म करने के लिए आपस में रोटी व बेटी का संबंध होना बेहद ज़रूरी है. वह लिखते हैं कि- “अछूतों के साथ रोटी-बेटी का संबंध स्थापित कर, उन्हें समाज में मिला लिया जाए।” संतराम बी.ए. जी की मंशा थी कि अंतरजातीय विवाह को कानूनी मान्यता मिले। इसके लिए इन्होंने बी.जे पटेल बिल का जमकर समर्थन भी किया था। वर्ष 1918 में बी.जे. पटेल ने अंतरजातीय विवाह को वैद्यता के लिए लेजिस्लेटिव असेम्बली में बिल पेश किया गया था। बिल में इस बात पर विशेष जोर दिया गया था कि जो लोग अंतरजातीय विवाह करते हैं, उनके विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की जाए। इस बिल में एक बात और जोड़ी गई थी कि अंतरजातीय विवाह से उत्पन्न संतानों को अपने पूर्वजों की पैतृक सम्पति में अधिकार दिया जाए।
हिंदी के कई लेखक उस समय सन्तराम बी. ए. जी पर लेखन से हमलावर होते रहते थे, पर संतराम बी.ए. साहब भी समय-समय पर उनकी बातों का तार्किक जवाब जरूर देते थे। उन्होंने ‘अंतरजातीय विवाह लेख, अमृतराय की आपत्तियों का बड़ा ही तार्किक ढ़ंग से खण्डन किया था। अमृतराय जी की आपत्ति थी कि अंतरजातीय विवाह धार्मिक भावना के विरुद्ध है। संतराम बी.ए.जी ने इस आक्षेप के जवाब में लिखा था कि- ‘‘आपको देश की स्थिति का ठीक से ज्ञान नहीं जान पड़ता, नहीं तो आप ऐसा न कहते। लोग बिरादरियों के संकीर्ण क्षेत्रों से तंग हैं, पर आप जैसों ने उनको इतना भयभीत कर रखा है कि उन्हें जाति के बाहर जाने का साहस ही नहीं हो रहा।’’ बाबा साहब से बहुत ही ज़्यादा प्रभावित होने का ही परिणाम था कि संतराम जी बाबा साहब की किताबों के खिलाफ लेख लिखने वालों से सीधे भिड़ जाते थे। एनिहिलेशन आफ कास्ट’ के छपने के बाद गांधी जी ने ‘हरिजन’ पत्र के 11 और 18 जुलाई, 1936 के अंक में बाबा साहब की आलोचना में लेख लिखा। संतराम बी. ए. जी ने गांधी जी की आलोचना का जवाब ‘हरिजन’ पत्र में दिया था। संतराम बी ए जी ने गाँधी जी से पूछा था कि- आप अस्पृश्यता को दूर करने का उपाय तो करते हैं, लेकिन जाति-व्यवस्था का बचाव क्यों करते हैं? यह भी सवाल उठाया था कि जाति व्यवस्था का समाधान खोजना वैसा ही है जैसे कीचड़ को कीचड़ से धोना। सामाजिक न्याय का यह वीर बहुजन योद्धा दिनांक 31 मई, 1988 को हम भारत के लोगों को जगाते-जगाते सो गया।
सामाजिक क्रांति के महानायक, प्रखर लेखक व चिंतक, मिशनरी व्यक्तित्व, अंतरजातीय विवाह के प्रबल पैरोकार, बाबा साहब के समकालीन, समतामूलक समाज की सोंच रखने वाले बहुजन महापुरूष संतराम बी.ए. जी के जन्म दिवस 14 फरवरी पर कृतज्ञतापूर्ण नमन🙏 आपका सामाजिक जाग्रति हेतु किया गया अतुलनीय योगदान बहुजन समाज में सदैव अविस्मरणीय और प्रेरणादायक बना रहेगा💐🙏
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