एक राजनीतिक व्यक्तित्व, महान समाज सुधारक व शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता, हैदराबाद राज्य में अस्पृश्यता एवं सामाजिक अन्याय के विरुद्ध प्रबल लड़ाई लड़ने वाले, जोगिनी तथा देवदासी प्रथा के उन्मूलन के लिए अथक संघर्ष करने वाले, आंध्र प्रदेश में बहुजन आंदोलन के प्रणेता व महामना जोतिबाराव फूले जी से प्रेरित भाग्य रेड्डी वर्मा जी का जन्म दिनांक 22 मई, 1888 को हैदराबाद रियासत में बहुजन समाज में (पिछङी जाति-माली) हुआ था। आपके पिताजी का नाम मदारी वेंकैया जी था तथा आपके बचपन का नाम मदारी भगैया था। आपके परिवार में अक्सर आने वाले एक संत, उनके जन्म के वर्ष ही नवंबर माह में इनके परिवार में आए और उन्होंने इस बालक का नाम भाग्यरेड्डी सुझाया था। पिता, मदारी वेंकैया जी ने उन संत से पूछा कि यह नाम ही क्यों? तो उन संत ने तर्कसंगत उत्तर दिया था कि- तथाकथित बहुजन, दक्षिण भारत में गैर-अनार्यों के विस्तार से पहले यहां के मूल शासक थे, इसलिए तेलुगु शब्द “रेदु” से “रेड्डी” शब्द, जिसका अर्थ है “शासक”।
बालक भाग्य रेड्डी की क्रांति का पहला कार्य तब हुआ, जब उन्होंने शिक्षा की दुनिया में प्रवेश किया। उनके अनपढ़ माता-पिता ने अपने बच्चे को शिक्षित करने के लिए गरीबी, सामाजिक अस्पृश्यता व आर्थिक बाधाओं से डटकर लड़ाई लड़ी और यह छोटा बालक तत्कालीन हैदराबाद स्टेट में उस दौर के बदलाव का वाहक बन गया। वर्ष 1910 में 22 साल की आयु में भाग्यरेड्डी जी ने हैदराबाद के इस्लामिया बाजार में पिछङों के लिए एक लघु प्राथमिक विद्यालय खोला और असाधारण रूप से 18 वर्ष की छोटी आयु में ही भाग्यरेड्डी जी ने एक सामाजिक संगठन की स्थापना भी कर दी थी, जिसे बाद में “मान्य संघम” के नाम से जाना गया तथा अंततः वर्ष 1917 में यही संगठन जन-आदि-हिंदू आंदोलन के रूप में विकसित हुआ। आदि-हिंदू आंदोलन ने समाज के सामने एक नैतिक प्रश्न रखा- “कि हम (सामाजिक रूप से पिछङे) भी हिन्दू हैं और इसलिए अस्पृश्यता की इस अमानवीय प्रथा को समाप्त किया जाना चाहिए।” आज के नए समाज सुधारकों को यह अजीब लग सकता है कि उनके सबसे महान नायकों में से एक रेड्डी जी गलत परिकल्पना पर बहस कर रहे थे, लेकिन यहां यह भी याद रखना आवश्यक है कि कि वह समय व परिस्थितियां कैसी थीं। महान समाज सुधारक स्वामी अछूतानंद जी ने भी पिछङों को आदि-हिंदू कहा था, और दोनों लगभग एक ही समय में थे। बाबा साहब ने भी स्वामी अछूतानन्द जी के सामाजिक कार्यों की सराहना की थी। वर्ष 1933 तक, भाग्यरेड्डी जी द्वारा संचालित स्कूलों की संख्या बढ़कर 26 हो गई। उन्होंने वर्ष 1917 में बेजवाड़ा में आंध्र देश प्रथम पंचमा सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। अब उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि 27 सितंबर, 1931 को लखनऊ में आयोजित पिछङे वर्गों के सम्मेलन की अध्यक्षता उन्होंने ही की और बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी भी उस सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे। वर्ष 1917 में, कलकत्ता में अखिल भारतीय सामाजिक सुधार के एक सम्मेलन में, भाग्यरेड्डी जी मुख्य वक्ताओं में से एक थे। उनके द्वारा निर्धारित दस मिनट के अंदर अपना भाषण समाप्त करने के बाद, जनता ने उनसे और अधिक के समय की मांग की और मंच पर उनका समय बढ़ा दिया गया। इस अवसर पर गांधी जी भी उपस्थित थे और उन्होंने उनका बहुत सम्मान किया था। धीरे-धीरे अब वह इतने सामाजिक लोकप्रिय हो गए थे कि वर्ष 1913 में आर्य समाज ने उन्हें “वर्मा” की उपाधि देने के लिए एक समारोह का आयोजन किया था। हैदराबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश राय सी. बाल मुकुंद जी का वर्ष 1926 में निधन हो गया था, तो उन्होंने अपनी वसीयत में कहा था- कि उनका शव, भाग्यरेड्डी वर्मा जी के संगठन को सौंप दिया जाएगा, जो उनका अंतिम संस्कार करेगा। उनका अंतिम संस्कार जुलूस एक असाधारण अवसर था, जहां एक बहुजन के नेतृत्व में, हैदराबाद के अभिजात कहे जाने वर्ग ने भाग लिया था। भाग्यरेड्डी जी ने देवदासी प्रथा व जोगिनी प्रथा के खिलाफ एक सघन आंदोलन चलाया था, जिससे निजाम को इसे अपराध घोषित करने के लिए मजबूर होना पड़ा। उनका सामाजिक मिशन केवल आंध्र तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने इसके लिए पूरे भारत की यात्रा की। ऐसे महान बहुजन समाज सुधारक, जिनकी प्रशंसा बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर जी ने भी कई बार की थी और फिर भी, हमारा समाज एक सुधारक या शिक्षक के रूप में आज तक उन्हें नहीं जान पाया। भाग्य रेड्डी वर्मा जी ने बहुजनों के लिए हैदराबाद क्षेत्र के आसपास लगभग 26 शैक्षिक स्कूलों की स्थापना की थी। उन्होंने पिछङों के बीच आपसी विवादों को निपटाने के लिए दलित पंचायत अदालतों की स्थापना की थी। उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में प्रतिनिधिमंडल भेजने का समर्थन करने के लिए 27 और 28 दिसंबर, 1930 को लखनऊ में आयोजित अखिल भारतीय अनुसूचित जाति सम्मेलन की अध्यक्षता की थी और इस बैठक में भी बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर जी भी मौजूद थे। वर्ष 1906 में, उन्होंने लोकप्रिय लोककथाओं के माध्यम से बहुजनों को शिक्षित करने के लिए “जगन मित्र मंडली” की शुरुआत की। मंडली ने पिछङों के बीच सामाजिक चेतना पर भी बेहतरीन काम किया। बाद में वर्ष 1911 में उन्होंने “मान्य संघम” की स्थापना की, जिसने साहित्य और व्याख्यान के माध्यम से बहुजनों के बीच सामाजिक जागरूकता पैदा करने का सराहनीय प्रयास किया। उनके द्वारा बहुजन समाज में विभिन्न नारे लोकप्रिय गढ़े गए, जैसे ‘दलित इस देश की रीढ़ हैं’ से लेकर ‘हम हिंदू नहीं बल्कि आदि-हिंदू हैं’, जिन्होंने इस क्षेत्र में बहुजनों को सक्रिय और प्रेरित किया। उन्होंने समाज में व्याप्त कई अन्य सामाजिक बुराइयों जैसे बाल विवाह, काला जादू और शराब निषेध आदि के लिए अभियान चलाया। उनके काम और समानता के विचारों को तथाकथित लेखकों द्वारा भी नज़रअंदाज़ किया गया है, जो अपनी मंशानुसार इतिहास गढ़ने में सिद्धहस्त रहे हैं। हमें अपने इतिहास और बहुजन नायकों को खोज-खोजकर अपने समाज के बीच लाना ही होगा। हमें अपने उन बहुजन नायकों के जन्म-स्मृति दिवस और कार्यों का जश्न मनाना चाहिए, जिन्होंने मानवता, समाज और बहुजनों के लिए अपना पूरा जीवन अर्पित करने के बाद भी गुमनाम होकर रह गए हैं।
महान समाज सुधारक, बाबा साहब के सामाजिक मिशन के सहयात्री और महामना जोतिबा फूले जी को अपना आदर्श मानकर धरातल पर बहुजन मिशन को गति देने वाले महान बहुजन विचारक भाग्य रेड्डी वर्मा जी के स्मृति दिवस 18 फरवरी पर कृतज्ञतापूर्ण नमन व विनम्र आदरांजलि💐🙏
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