15 मार्च को साहब का जन्म दिवस मनाकर जय-जयकार करने से पूर्व आज हमें फिर से सच्चे मिशनरी संविधानवादी साथियों को उनके विचारों से अवगत होने और समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार के चमचों को आज के परिदृश्य में पुनः पहचानने की तात्कालिक आवश्यकता पर ध्यान आकृष्ट कराना भी समय की मांग है। आइए, मान्यवर साहब कांशीराम जी के जन्म दिवस 15 मार्च से एक दिन पूर्व आज 14 मार्च के दिन उनकी एक महत्वपूर्ण कृति “चमचा युग” पुस्तक से परिचित होकर फिर से विचार करते हैं-आज के चम्मचों(समाज के चमचों) पर।
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वर्ष 1982 में मान्यवर साहब कांशीराम जी द्वारा लिखित किताब ”चमचा युग” (An Era of the Stooges) प्रकाशित हुई।
यह किताब डाॅ. आम्बेडकर के अभ्युदय से लेकर पूना पैक्ट, शोषित समाज के नकली नेतृत्व से होती हुई स्थायी समाधान तक पहुंचती है।
कुल चार भागों में विभक्त यह किताब मात्र 127 पृष्ठों की है।
गौरतलब है कि मान्यवर कांशीराम जी ने अपनी पार्टी का औपचारिक गठन वर्ष 1984 में किया।
मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब का सरल सहज हिन्दी में भी अनुवाद अब उपलब्ध है।
यह किताब महामना ज्योतिराव फुले जी को समर्पित की गई है।
मान्यवर कांशीराम जी इस पुस्तक के उद्देश्य के बारे में लिखते हैं कि-
”इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य दलित शोषित समाज को और उसके कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को दलित शोषित समाज में व्यापक स्तर पर विद्यमान पिट्ठू तत्वों के बारे में शिक्षित, जागृत और सावधान करना है।
इस पुस्तक को जनसाधारण को और विशेषकर मिशनरी कार्यकर्ताओं को सच्चे एवं नकली नेतृत्व के बीच अन्तर को पहचानने की समझ पैदा करने की दृष्टि से भी लिखा गया है।
उन्हें यह समझना भी आवश्यक है कि वह किस प्रकार के युग में रह रहे हैं और कार्य कर रहे है- यह पुस्तक इस उद्देश्य की पूर्ति भी करती है।”
मान्यवर कांशीराम जी अपनी किताब “चमचा युग” में उद्धृत करते हैं कि किस प्रकार प्रसिद्ध डा. अम्बेडकर साहब को उनके ही बिरादरी के अनजाने प्रत्याशी ने हरा दिया।
वह कहते हैं कि डा.आम्बेडकर को इसकी आशंका पूना पैक्ट के दौरान ही थी, इसलिए उन्होने पृथक निर्वाचक मण्डल की वकालत तत्समय की थी।
डा आंबेडकर का यह कथन ध्यान देने योग्य है कि-
”संयुक्त निर्वाचक मण्डल और सुरक्षित सीटों की प्रणाली के अन्तर्गत स्थिति और भी बदतर हो जायेगी, जो एतत्पश्चात पूना-पैक्ट की शर्तों के अनुसार लागू होगी। यह कोरी कल्पना मात्र नही है। पिछले चुनाव ने 1946 निर्णायक रूप से यह सिध्द कर दिया है कि अनुसूचित जातियों के संयुक्त निर्वाचक मण्डल से पूर्ण रूपेण मताधिकारच्युत किया जा सकता है।” – डा.बी.आर.आम्बेडकर पृ.85 चमचा युग
अर्थात बाबा साहब यह मानते थे कि वर्तमान मतदान प्रणाली दलित बहुजन को अपने सच्चे प्रतिनीधि चुनने के काम नही आयेगी।
गैर पिछङे जिन आरक्षित सीटों में दलित बहुजन को खड़ा करेंगे वह दलितों के नही वरन गैर पिछङों के चमचे (हितैषी) होगे।
मान्यवर कांशीराम जी पुस्तक के प्रारंभ में चमचा/पिटठु की परिभाषा बतलाते हैं –
“चमचा एक देशी शब्द है जो ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जो अपने आप क्रियाशील नही हो पाता है बल्कि उसे सक्रिय करने के लिए किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है। वह अन्य व्यक्ति चमचे को सदैव अपने व्यक्ति उपयोग और हित में अथवा अपनी जाति की भलाई में इस्तेमाल करता है जो स्वयं चमचे की जाति के लिए हमेशा नुकसानदेह होता है।” – (पृष्ठ-80 चमचा युग )
इस प्रकार मान्यवर कांशीराम जी मुख्य रूप से चमचों/ मौका परस्तों को छःभागो में बांटते है-
- जाति या समुदायवार चमचे
अनुसूचित जाति -(अनिच्छुक चमचे)- इन्होने संघर्ष करके उज्जवल युग में प्रवेश करने का प्रयास किया लेकिन लोगों और कांग्रेस ने अनिच्छुक चमचा बना दिया।
अनुसूचित जनजाति -(नवदीक्षित चमचे)- इन्हे दलितों के संघर्ष के कारण पहचान एवं अधिकार मिल गया, लेकिन यह अपने उत्पीड़क को अपना हितैषी समझते है।
अन्य पिछड़ा वर्ग – (महत्वकांक्षी चमचे) – यह अब महसूस करते है कि वे दलितों से भी पीछे हो गये है, इसलिए इन्हे महत्वकांक्षा बहुत है। इसी कारण बहुजन आंदोलन से जुड़ रहे हैं।
अल्पसंख्यक – (मजबूर चमचे)- इसाई, मुसलमान, सिक्ख, बौध्द ये मजबूर चमचे है, क्योकि ये शासक जातियों के रहमों करम पर हैं।
2. पार्टीवार चमचे
ये चमचे अपने आपको दलीय अनुशासन में जकड़े होने का हवाला देकर समाज विरोधी कार्य करते हैं।
3. अबोध या अज्ञानी चमचे
ये वो चमचे है जो अपने शोषकों को ही अपना उध्दारक मानते हैं।
4 ज्ञानी चमचे अम्बेडकरवादी चमचे
यह वो लोग है जो बड़ी- बड़ी बाते करते हैं अम्बेडकर को पढ़ते और कोड भी करते हैं लेकिन आचरण उसके विपरीत करते है।*मान्यवर कांशीराम साहब इन चम्मचों से सबसे ज्यादा आहत थे।
- चमचों के चम्मच
यह राजनैतिक चम्मच अपनी जाति या समुदाय में पैठ दिखाने के लिए अपने चमचे बनाते हैं, जो शासक जातियों की पूरी सेवा करने के लिए तत्पर रहते हैं। शिक्षित-नौकरी पेशा वाले लोग अपने निजी फायदे के लिए इन चम्मचों की चमचागिरी करते हैं।
6.चमचे विदेशों में
विदेश में रहने वाले अछूत जिन्हें लगता है कि भारत में चमचों की कमी है, तो वह भारत आकर शासक जाति की चमचागीरी चालू करते हैं और अपने आपको आम्बेडकर समझने लगते हैं। जैसे ही दलित बहुजन आंदोलन गति पकड़ेगा, वह पुनः खुले रूप में बाहर आ जायेंगे।
उनकी यह किताब किसी भी दलित बहुजन को परिस्कृत करने के लिए काफी है।
आज हम जान सकते हैं कि किस प्रकार चमचों के कारण दल, बल, मिशन कमजोर हो गया।
बहुजन आन्दोलन गद्दारों का आन्दोलन न बन पाये इसलिए भविष्य को ध्यान में रखकर उन्होने आगाह करने के लिए यह किताब लिखी ।
यह किताब आम्बेडकरी आन्दोलन को एक कदम आगे ले जाने के लिए प्रेरित करती है ।
वह बाबा साहब के शब्दो को मंत्रो की तरह रटने के लिए नहीं, बल्कि उनको अंगीकार करने के लिए जोर देते थे। इस किताब में घटनाओं एवं तथ्यों का विश्लेषण तथा महत्वपूर्ण व्याख्या है।
आज साहब कांशीराम जी को हम सभी जानते होंगे, लेकिन वास्तविकता में उनको समझ वही सकते हैं, जिन्होने उनकी किताब “चमचा युग” पढ़ी होगी। साहब की किताब “चमचा युग” आज भी प्रासंगिक है और यह सदैव प्रासंगिक बनी रहेगी।
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