02 अगस्त, 1941 को अमरीका के मिनियापोलिस प्रांत में जन्मीं प्रसिद्ध समाजशास्त्री गेल ऑम्वेट, जिन्होंने भारत को अपना कार्य क्षेत्र बनाया और 70 के दशक में फुले-आंबेडकर की क्षीण होती विचारधारा को पुर्नजीवित किया, एक कुशल अध्येता, शोधकर्ता और प्रखर मानवतावादी सामाजिक लेखिका थीं। उनके अध्ययन के केंद्र में हाशिए पर पड़ा बहुजन समाज व महिलाएं रहीं। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं। यही वजह रही कि उन्होंने वर्ष 2014 में ‘महात्मा फुले विजन’ लोगों के सामने रखा, जो कि असल में उनका वह सपना था, जिसे वह साकार देखना चाहती थीं। आज की युवा पीढ़ी को शायद यह आश्चर्यजनक लगे कि विदेशी मूल की इस अध्येता के प्रति कृतज्ञता क्यों? इस संबंध में हमें यह जानने की जरुरत है कि वह जब पहली बार भारत आईं, तब वह दौर था, जब भारत के तमाम निराश बहुजनों को एक करिश्माई नेतृत्व का इंतजार था कि कोई आए और उनके हक-हुकूक को लेकर उन्हें संगठित करे।
गेल ऑम्वेट का जन्म 2 अगस्त, 1941 को अमरीका के मिनियापोलिस प्रांत में हुआ था। वहीं के कार्लटन कॉलेज में पढ़ाई करने के बाद उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कले में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने भारत मे सामाजिक आंदोलनों के साथ सक्रिय रूप से काम करना प्रारंभ किया, जिसमें दलित और जाति विरोधी आन्दोलन, पर्यावरण आन्दोलन, किसान आन्दोलन, और विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं के लिए काम करना शामिल है। वह स्त्री मुक्ति के संघर्ष में आजीवन सक्रिय रहीं, जिसने दक्षिणी महाराष्ट्र के सांगली और सतारा जिलों में परित्यक्त महिलाओं के मुद्दों पर काफी काम किया और महिलाओं के भूमि संबंधी अधिकारों और राजनीतिक मुद्दों पर बेबाकी से सक्रिय रहीं।
बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के परिनिर्वाण के 07 साल बाद वर्ष 1963 में गेल ऑम्वेट पहली बार भारत आई थीं। तब उन्हें भारत के उत्पीड़ित वर्गों का उच्च तबके द्वारा सतत उत्पीड़न व शोषण उन्हें गहरे अंदर तक झकझोर गया और वह एक बार पुनः भारत आईं। जब वह दूसरी बार आईं तो वह एक खास उद्देश्य से आईं थी। तब उन्होंने अपने पीएचडी के शोध निबंध का विषय रखा था– “कल्चरल रिवोल्ट इन कोलोनियल सोसाइटी : द नॉन-ब्राह्मण मूवमेंट इन वेस्टर्न इंडिया, 1873-1930”। गेल ऑम्वेट का अध्ययन वैसे तो वर्ष 1873 से लेकर वर्ष 1930 के बीच भारत में था। परंतु जब वर्ष 1973 में उनका शोध प्रबंध ‘पश्चिमी भारत में गैर ब्राह्मण आन्दोलन’ पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ, तो उन्होंने 19वीं सदी के अंतिम दशकों में जोतीराव फुले के द्वारा किए गए आंदोलन को एक नये दृष्टिकोण से पुनर्स्थापित किया। उनका यह काम कितना महत्वपूर्ण था, कि उनके शोध प्रबंध को भारत में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे लोगों ने तो प्रेरक माना ही, विश्व पटल पर गेल ऑम्वेट के काम का दायरा बहुत बढ़ गया था। वह जीवन भर फुलेवाद, आंबेडकरवादऔर स्त्री मुक्तिवादी विचारों पर चलती रहीं। उन्होंने न केवल भारत के वंचितों और पीड़ितों की समस्याओं को अपने शोधपरक लेखन मे शामिल किया, बल्कि उन्हें दुनिया के सामने भी रखा। वर्ष 1970 से लेकर वर्ष 1990 के दशकों में गेल का नाम दलितों व कामगारों के अधिकारों के लिए लड़ने वाली कार्यकर्ता के रूप में जाना जाने लगा। वह सभाओं को अक्सर मराठी में संबोधित करती थीं। वह हिंदी भी बोलती थीं। यह वह दौर था जब मान्यवर साहब कांशीराम जी ने सामाजिक परिवर्तन के आधार पर पूरे देश में सामाजिक आंदोलन छेङ रखा था। उनके आंदोलन को गेल ने गहराई तक प्रभावित किया। यहां तक कि मान्यवर काशीराम जी ने अपने कई संबोधनों में गेल के प्रति आभार प्रकट किया है और यह स्वीकार किया है कि कैसे उनके शोध कार्यों ने बहुजन आंदोलन को मजबूती दी। मान्यवर कांशीराम साहब का यह कहना बेवजह नहीं था। ऑम्वेट ने ‘दलित्स ऐंड द डेमोक्रेटिक रिवोलूशन : डॉ. आंबेडकर ऐंड द दलित मूवमेंट इन कोलोनियल इंडिया’ और ‘आंबेडकर : टुवर्ड्स ऐन एनलाइटेंड इंडिया’ में लिखा है कि बाबा साहेब का संघर्ष स्वाधीनता के संघर्ष से अलग था। यह भारत के शोषित-पीड़ित लोगों की मुक्ति का संघर्ष था। ‘बुद्धिज़्म इन इंडिया : चैलेंजिंग ब्राह्मणिज़्म ऐंड कास्ट’ में गेल ने बौद्ध धम्म के पुनरुत्थान को जाति-विरोधी आधार कहा, जो कि अमानवीय स्वर के विपरीत था। बौद्ध धम्म को लेकर यह एक नया दृष्टिकोण था। इसके अलावा भारत के नारी-स्वर और महिला आंदोलन में गेल का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उनकी पुस्तक ‘वी शैल स्मैश दिस प्रीज़न : इंडियन वुमेन इन स्ट्रगल’ मील का एक पत्थर है, जिसमें उन्होंने महिला आंदोलन के विभिन्न स्वरूपों का विस्तृत मूल्यांकन किया है। उनकी ‘सीकिंग बेगमपुरा : द सोशल विज़न ऑफ एंटी कास्ट इंटेलेक्चुअल्स’ की चर्चा भी यहां महत्वपूर्ण हो जाती है। यह महान बहुजन संत रैदास की रचना से प्रेरित है, जिसमे उन्होंने बिना दुख के नगर(बेगमपुर) की कल्पना की है, जहां कोई असमानता नहीं है। लेखन कार्य के साथ-साथ गेल ऑम्वेट ने जमीनी संघर्ष भी किया। श्रमिक मुक्ति दल की स्थापना इसका एक प्रमाण है। वह लिखती हैं कि “महात्मा जोतिबा फुले, कार्ल मार्क्स, डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर और पूरे विश्व में महिला मुक्तिवादियों के विचारों और सिद्धांतों के आधार पर, श्रमिक मुक्ति दल के विचार और सिद्धांतों की स्थापना की गई है। स्थापित पूंजीवादी व्यवस्था और पितृसत्तात्मक, जातिवादी शोषक संबंधों और वर्ग शोषण के संबंधों को स्थायी रूप से समाप्त करने और उनके स्थान पर पारिस्थितिक रूप से संतुलित, विकेंद्रीकृत और समृद्ध समाज की स्थापना के सपने के साथ, श्रमिक मुक्ति दल ने पिछले 33 वर्षों में एक अनूठा संघर्ष किया है।” गेल ऑम्वेट ने जिन मुद्दों को लेकर संघर्ष किया, उनमें वैकल्पिक जल नीति, समान जल वितरण, सूखा उन्मूलन, पवनचक्की ऊर्जा, अल्ट्रामॉडर्न पारिस्थितिक रूप से संतुलित विकेन्द्रीकृत उद्योग, जंगल, विकासात्मक पुनर्वास, जाति का विनाश और महिला मुक्ति आदि शामिल रहे। उनका मानना था कि इन सवालों के जवाब तलाशने होंगे ताकि मेहनतकशों को न केवल इसी जीवन में सुखी जीवन मिले, बल्कि वह अपनी मुक्ति की ओर आगे बढ़ें। अपने इन्हीं विचारों को केंद्र में रखकर उन्होंने ‘महात्मा फुले विजन 2014’ लोगों के सामने रखा। ‘महात्मा फुले विजन 2014’ का अर्थ था– मानव मुक्ति की ओर जाने वाले शोषण मुक्त और पारिस्थितिक रूप से संतुलित समाज का सपना। यह सपना जमीन पर पैरों के साथ सीधे विकल्प का सपना था। उनका सपना यथार्थपरक था। उन्होंने कार्ययोजना का निर्माण किया था, जिसका उल्लेख वह स्वयं करते हुए कहती हैं कि ‘महात्मा फुले विजन 2014’ के तहत उत्पादन के तरीके, सामाजिक संबंध, उत्पादन संबंध, सांस्कृतिक संबंध, संस्कृति, कला को एक साथ लाने वाली एक सामंजस्यपूर्ण प्रक्रिया का निर्माण करना, जो वर्ग, जाति, लिंग, नस्ल और धर्म के आधार पर शोषण को समाप्त करने की दिशा में जाएगा। यह उद्योग किसी एक जाति, धर्म, नस्ल या लिंग से बंधे नहीं होने चाहिए। इनमें मानव रचनात्मक क्षमता के विस्तार का रूप होना चाहिए।
गेल मानती थीं कि उद्योगों के पास बढ़ते हुए पारिस्थितिक संतुलन और एक समृद्ध पर्यावरण होने का आधार होना चाहिए। इसके अलावा वह सामाजिक मुद्दों को लेकर भी मुखर रहीं। ‘महात्मा फुले विजन 2014’ के तहत उन्होंने कुछ खास एजेंडा सामने रखा था। इनमें जाति व्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए एक दीर्घकालिक कार्यक्रम लागू करने, अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए जागरूकता अभियान चलाने, अंतरजातीय विवाह करने वालों की सुरक्षा के लिए एक सामाजिक और संगठनात्मक प्रणाली का निर्माण करने, जाति-मुक्त त्यौहारों-समारोहों और सांस्कृतिक अनुष्ठानों की खोज करने तथा उनका सामान्यीकरण करने संबंधी उनके संकल्प शामिल रहे। उनकी कार्ययोजना में महिलाएं अहम थीं। उन्होंने जिस योजना की परिकल्पना की थी, उसमें महिलाओं के शोषण को समाप्त करने और यौन संबंधों में व्यक्तिगत पसंद के लिए पूर्ण स्वतंत्रता के कार्यक्रम को लागू करना भी शामिल था। उनका मानना था कि काम करती महिलाओं के साथ भारतीय समाज वैसे ही व्यवहार करे जैसे पुरुष कामगारों के मामले व्यवहार किया जाता है। उन्हें समान मजदूरी और सम्मान मिले। यदि ऐसा हुआ तो महिलाएं सभी क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभा सकेंगीं और परिवार, सामाजिक संबंधों तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में उनका शोषण समाप्त हो जाएगा।
सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले लोगों के उदाहरण दुर्लभ मिलते हैं और जो लोग उस समुदाय के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं, जिसमें उनका जन्म नहीं हुआ है, वह दुर्लभतम है। गेल ओमवेट जी इसका अनन्य उदाहरण हैं। जय जोति, जय भीम, जय तुकोबा का अभंग वह बङी सहजता से गाती थीं। मान्यवर कांशीराम साहब को जब ब्रेन स्ट्रोक हुआ था और साहब नई दिल्ली के बत्रा अस्पताल में भर्ती थे, गेल ओमवेट जी इस दुखद समाचार को सुनकर बेचैन हो गई थीं और वह भावनात्मक रूप से टूट गई थीं। कांशीराम साहब को जब भी कभी मौका मिलता, उनकी मैडम गेल ओमवेट जी से मुलाकात होती रहती थी। कांशीराम साहब बत्रा हॉस्पिटल के बिस्तर पर भर्ती थे गेल ओमवेट आधे घंटे तक कमरे के पास भावुक होकर बैठी रहीं। ऐसा इसलिए भी था, क्योंकि गेल मैडम और उनका शोध कार्य मान्यवर साहब और बामसेफ के लिए मार्गदर्शक रोशनी की तरह था। दोनों का कार्य भले अलग-अलग दिखता था, पर लक्ष्य एक ही था। गेल ओमवेट जी के शोधपरक लेखनों को साहब कांशीराम जी जमीन पर अमली जामा पहना रहे थे। गेल ओमवेट जी के जीवन की मुख्य खोज थी-रैदास का बेगमपुरा, बुद्ध की सुखावती, तुकोबा का वैकुंठ, जोतिबा का सत्यशोधक समाज और बलिराज्य तथा बाबा साहेब का प्रबुद्ध भारत। उन्होंने अत्यंत समर्पण और सर्वोच्च बलिदान के साथ इस दृष्टिकोण में योगदान दिया। जैसे-जैसे बहुजन आंदोलन आगे बढ़ेगा, भारत अपने जीवन और मिशन के प्रति जागृत होगा। वास्तव में, वह किसी भी मान्यता से बढ़कर थी जिसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की। वह महाराष्ट्र के एक दूरदराज के गांव में चिलचिलाती गर्मी में कभी-कभी बिना पंखे के टिन शेड में खुशी-खुशी अपनी किताबें लिख रही थीं। वह गेल था, उत्कृष्ट जीवन, अच्छी तरह से जीया गया जीवन, और प्रबुद्ध जीवन जो बदले में कुछ भी मांगे बिना और कोई शिकायत किए बिना आजीवन 25 अगस्त, 2021 तक पूरी तरह मानवता को समर्पित रहा। ऐसी महान सख्शियत से सीख लेते हुए उन्हें कृतज्ञतापूर्ण नमन 💐🙏
Leave a Reply